Tuesday 3 December 2013

भगवान् शिव का श्रंगार ।


जय राम जी की।








श्री तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में सर्प को विभिन्न प्रकार से संबोधित किया है और इसे भांति भांति प्रकार की भावनाओं से जोड़ा है।

माँ केकई को लोभ के सर्प ने डस लिया।
रावण को काम के सर्प ने डस लिया।
गरुड़ जी को संसय के सर्प ने डस लिया।

हम सर्प को किस किस तरह से लेते हैं और हमारे जीवन में सर्प किस तरह पारिभाषित होता है।
सर्प काल का प्रतीक होकर सब को भयभीत करता है। परन्तु भगवान् कालातीत हैं और श्री नारायण सर्प की शय्या पर शयन करते हुए इसे विश्राम देने वाला मानते हैं तो भगवान् शिव सर्प को आभूषण के रूप में स्वीकारते हुए क्रीडा की वस्तु समझते हैं। व्यक्ति मणि और स्वर्ण के आभूषण धारण करना चाहता है उसे सर्प से डर लगता है कहीं ये सर्प उसे डस ना ले।वह सर्प के आभूषण को धारण करने की कल्पना भी नहीं कर सकता। किन्तु भगवान् शिव व्यंग करते हुए कहते हैं कि संसार में मणि और स्वर्ण के आभूषण के लोभ ने जितनो लोगो को डसा है उसकी तुलना में वास्तविक सर्प कम भयानक है। व्यक्ति ये नहीं जानता की लोभ-सर्प मन और प्राण को निरन्तर डस रहा है और सर्प केवल शरीर को ही हानि पंहुचा सकता है।
शिव विवाह के समय शिव जी ने मोर पंख जो काम का प्रतीक है जिसे हर दूल्हा सिर पर धारण करता है उसकी जगह भी सर्प को धारण किया ये सत्य प्रगट करते हुए की जिस मस्तिक पर रामभक्ति की गंगा बह रही हो उस मस्तक पर कोई काम-सर्प पीड़ा नहीं पंहुचा सकता। हर प्राणी को किसी न कुसी बात का संशय होता है परन्तु कान में सर्प के कुण्डल डालने पर ये कहते हैं कि जिस कान से श्री राम कथा का श्रवण होता हो उसे संशय सर्प का क्या भय। हाथ में कंकन के स्थान पर सर्प के कंकन यह दर्शाते हैं कि जो हाथ निरंतर दान करता हो उस हाथ को लोभ सर्प से किया भय। शरीर पर अपावन चिताभस्म को धारण करके बताते हैं कि आज आपकी अपवित्रता का केंद्र यह शरीर जो अनेको प्रकार के पाप करता था ख़त्म हो गया और आप परम पावन बन गए । ना कोई घर और ना कोई कामना। मै भी यही हूँ चलो हमारी तुम्हारी मित्रता हुई।
स्वर्ग का वैभव प्राप्त होने पर भी उसकी आयु है और उसे एक दिन समाप्त होना हैं मृत्युलोक के विषयों की तो बात ही क्या है । भगवन शिव को देखकर उनका उन्मत आचरण देख कर उनके सबसे बड़े भक्ति के परमाचार्य और दाता होने का संदेह होता है। भगवान् शिव का उन्मत्त रूप केवल यही प्रगट करता है की स्वर्ग के विषय प्राप्त करने पर भी अन्य विषयों की अपेक्षा रह जाती है अवं एक मात्र भगवत प्रेम ही ऐसा दिव्य पदार्थ है कि जिसको पाने के बाद व्यक्ति को कुछ और पाने की अभिलाषा नहीं रह जाती।
भगवान् शिव् के सर पर द्वितीय का चंद्रमा है। अपूर्ण चंद्रमा को धारण करना भगवान् शिव की करुणा का दर्शन है। पूर्ण को सभी धारण करके नमन करते हैं परन्तु अपूर्ण को भी अपने मस्तक पर धारण करके लोकवन्दित बना देना शिव का ही कार्य है।

जय राम जी।
28-10-2013


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