Thursday 12 December 2013

सर्वव्यापी और सर्वसमर्थ ईश्वर।








जय राम जी की।

ईश्वर सर्वव्यापी और सर्वसमर्थ हैं, यह ईश्वर सर्वव्यापी होकर हमारे ह्रदय में भी विराजमान हैं तथा सर्वसमर्थ होकर हमारी सभी प्रकार की समस्याओं को दूर करने में भी समर्थ हैं| परन्तु ऐसा प्रतीत नहीं होता क्योंकि इस प्रकाश पुंज के रहते हुए भी हर प्राणी के ह्रदय में कलुषता एवं अन्धकार का सामराज्य विद्यमान हैं और हर जीव अनेको प्रकार की समस्याओं और दुखों से पीड़ित दिखाई जान पड़ता है| फिर जीव किस प्रकार अपनी समस्याओं और दुखों को दूर करे? जीव प्राय: अपनी समस्याओं और दुखों के निवारण हेतु प्रयास करता हुआ ईश्वर को पुकारता है परन्तु क्या ईश्वर जीव की इस पुकार को सदैव सुनता है और समस्याओं को सुलझाता भी है? आओ विचार करें श्रीरामचरितमानस के सन्दर्भ से:-



श्री जनकजी के दरबार में धनुष को भंग करने के लिए दूर दूर से अनेक राजा, कई देवता भी राजा का भेष धरकर और श्रीरामजी भी श्री विश्वामित्रजी के साथ उपस्थित थे| दरबार में श्रीराम और धनुष दोनों ही थे परन्तु श्री राम जी की मात्र उपस्थिति से धनुष भंग नहीं हो सकता था, जिस प्रकार जीव के ह्रदय में ईश्वर की मात्र उपस्थिति से उसकी धनुष रूपी समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। ईश्वर तो हर पल और हर स्थान पर सदा ही व्याप्त हैं और हर समस्या को दूर करने में समर्थ भी हैं परन्तु दुःख, समस्याएं और कष्ट भी विद्यमान हैं।
जब श्रीरामजी के जनकवाटिका में पुष्प तोड़ते समय ही माथे पर पसीना आ गया था उन के द्वारा धनुष के टूटने की कोई कल्पना भी कैसे कर सकता था ? अब प्रश्न यह उठता है कि वह धनुष कैसे टूटा और किसकी प्रेरणा शक्ति से श्रीराम धनुष तोड़ पाए। इस सन्दर्भ में गोस्वामीजी ने स्पष्ट लिख दिया कि जब श्रीराम ने जनकपुर के वासियों की आँखों में व्याकुलता देखी और श्रीसीता जी की प्रार्थना और शक्ति को महसूस किया तथा सब लोग धनुष टूटने की प्रार्थना करने लगे तभी श्रीराम उस धनुष को तोड़ने में सक्षम हुए |

निष्कर्ष यह निकलता है कि ईश्वर के द्वारा जो क्रिया संपन्न होती है उसके पीछे भक्त की प्रार्थना की शक्ति  ही होती है|  यहाँ प्रत्येक व्यक्ति यह सोचता है कि जो करेगा ईश्वर ही करेगा, हमें कुछ करने की आवश्यकता नहीं है परन्तु यह केवल तर्क की दृष्टि से ठीक लगता है। प्रश्न उठता है की  ईशवर को मानने का अर्थ निष्क्रियता है क्या? इस सिद्धांत के कारण अगर कोई व्यक्ति निष्क्रिय हो जाता है तो यह उसकी भूल है न कि इस सिद्धांत की। वास्तविकता तो यह है कि जीव की भूमिका के बिना ईश्वर की भूमिका अधूरी है। अथवा हम कह सकते हैं कि भगवान् भक्ति की शक्ति के अधीन होकर ही क्रिया करता है।

 जय राम जी
12.12.2013

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