Wednesday 18 December 2013

श्रीहनुमानजी

श्रीहनुमानजी









जय रामजी की |

माता सीता के हरण के पश्चात श्रीराम जी ने सुग्रीव को माता सीता का पता लगाने का काम सौंपा और सुग्रीव ने अनगनित वानर इकठ्ठे कर दिए|  श्रीराम जी ने वह अंगूठी जिस पर राम लिखा था श्री हनुमान जी को  दी और उस अंगूठी को श्री हनुमान जी ने मुंह में डाल लिया| और जब लंका में अशोक वृक्ष पर श्री हनुमान जी बैठे थे तो वह अंगूठी माता सीता के उपर डाल दी|

 आओ इस पर विचार करें:-

माता सीता इस ब्रहमांड के सबसे बड़े वेदांत परम्परा को मानने वाले श्री जनक की पुत्री है| वेदांत को मानने वाले देह अभिमान से ऊपर होते हैं| माता सीता का जन्म वैसे भी किसी देह से उत्पन्न नहीं हुआ था तभी हम माता सीता को वैदेही भी कहते हैं और जनकपुर में सब व्यक्ति ब्रहमज्ञानी हैं इसी कारण वश उस राज्य को विदेहराज भी कहा जाता है| उस राज्य में कोई भी निवासी देह का अभिमान करने वाला नहीं होता सब इस देह अभिमान से उपर उठे होते हैं| इसी कारणवश माता सीता जिनको हम लक्ष्मी, भक्ति और शक्ति भी कहते हैं उन्हें बिना किसी प्रयास के प्राप्त हो गयीं|

श्रीराम और श्री लक्ष्मण वन में माता शबरी के कथनुसार सुग्रीव जी को खोज रहे थे तब सुग्रीव जी ने श्री राम और श्री लक्ष्मण को देख कर डरते हुए हनुमान जी से कहा कि ये जो दो सिंह पुरुष वन में विचर रहें हैं इनका पता लगाओ कहीं ये बाली के भेजे हुए ना हो और मेरा वध करने आयें हो| तब श्री हनुमान जी ने ब्राह्मण का रूप धारण किया और प्रभु श्री राम के सम्मुख होकर उनका परिचय माँगा| प्रभु ने कहा कि हम कोसलराज दशरथ के पुत्र हैं और पिता का वचन मानकर वन में आयें हैं| हमारे राम-लक्ष्मण नाम हैं, हम दोनों भाई हैं | मेरी पत्नी सीता को किसी राक्षस ने हर लिया और हम उसे ही खोज रहें हैं| यह तो थी हमारी कथा अब आप अपनी कथा सुनाएँ| प्रभु को पहचान कर श्री हनुमान जी ने स्तुति की और कहा आपका परिचय पूछना तो न्याय था परन्तु आप मनुष्य की तरह मेरा परिचय क्यों पूछ रहें हैं| तब श्री हनुमान जी ने कहा :-

एकु मैं मंद मोहबस कुटिल ह्रदय अज्ञान |

पुनि प्रभु मोहि बिसरेउ दीनबंधु भगवान् ||

एक तो मैं यों ही मंद हूँ, दूसरे मोह के वश में हूँ, तीसरे ह्रदय का कुटिल और अज्ञान हूँ, फिर आपने भी मुझे भुला दिया|

तात्पर्य यह है कि यहाँ श्री हनुमान जी ने ये नहीं कहा की मै हनुमान हूँ, अंजनी पुत्र हूँ, पवनसुत हूँ, शंकर सुवन केसरीनंदन हूँ अपितु अपनी इस देह का परिचय ना देकर,  अपने दोषों को प्रगट करते हुए कहते हैं की प्रभु मैं आपको पहिचान नहीं सका| उनके इस तरह से परिचय देने से श्रीराम समझ गए कि हनुमानजी में देह अभिमान ना होकर देह होने का भी भान नहीं है| (वैसे भी वायु की  कोई देह नहीं होती )  और फिर श्रीराम ने निर्णय किया कि जिसको देह अभिमान नहीं है वह ही वैदेही का पता लगा सकता है| यह जानकार ही अपनी अंगूठी श्रीहनुमानजी को दी| जब वह अंगूठी श्रीहनुमानजी ने मुंह में डाली तो श्रीराम ने कारण पुछा तो श्रीहनुमान जी बोले प्रभु भक्ति माता को खोजने के लिए मुंह में राम का नाम होना आवश्यक है| अगर मुहं में रामनाम होगा तभी भक्ति देवी प्राप्त होंगी|

लंका में श्रीहनुमान जी अशोकवृक्ष पर बैठकर माता सीता का विलाप सुनते हैं जब माता सीता अशोकवृक्ष से अंगार मांगती हैं तब श्रीहनुमान जी मन में विचार करके अंगूठी डाल देते हैं यह सोचकर कि माता सीता को अंगार की अपेक्षा राम ही माँगना चाहिए| श्रीराम का प्राप्त होना ही सब दुखों का निवारण है|

आज के युग में भी हर व्यक्ति शक्ति, भक्ति और लक्ष्मी की खोज में लगा है, सारे प्रयास इनको प्राप्त करने में ही लग रहें हैं ये केवल दुवापर युग की ही बात नहीं है| परन्तु ये भक्ति ,शक्ति और लक्ष्मी  श्रीहनुमानजी जैसे देह अभिमान से ऊपर उठे व्यक्ति को ही प्राप्त होगी|

18.12.2013



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