Tuesday 31 December 2013

भक्ति और भगवान्



जय श्रीराम

असीम ब्रह्म कैसे ससीम होकर माँ कौशल्या अथवा यशोदा मैया की गोद में समां जाता है।

रामचरितमानस में जब प्रभु की भुजा काक्भुशुन्दी जी को पकड़ने दोड़ी तो वह भुजा सदा मात्र दो अंगुल के अन्तर से पीछे रही। और वृन्दावन में जब यशोदा मैया नटखट भगवान् श्यामसुंदर को बाँधने की कोशिश करती हैं तो सारे वृन्दावन की रस्सी भी मात्र दो अंगुल के फर्क से छोटी रह जाती है। 
जब भगवान् जी से पूछा गया की यह दो अंगुल का क्या रहस्य है तो वह मुस्कुराकर बोले एक अंगुल तो मेरी कृपा का है और दूसरी अंगुल जीव की इच्छा का है। जब तक जीव मुझे पकड़ने का प्रयास नहीं करेगा और फिर मै उस जीव पर कृपा नहीं करूँगा तो हमारा मिलन संभव नहीं होगा। अगर इश्वर और भक्त एक दुसरे को पकड़ने का पर्यास नहीं करते तो जीव और इश्वर का मिलन नहीं होगा।
इश्वर को श्रीराम विवाह के समय माँ सीता की पंचरंगी चुनरीके छोर द्वारा बाँधा गया और फिर श्यामसुंदर भगवान् जब राधारानी के बरसाने से रस्सी मंगवाई गयी तो भी भगवान् बन्ध गए।
जिस माँ की गोद में जाकर व्यापक ब्रह्म इतना छोटा हो गया उसके हाथ मे अगर रस्सी भी आकर छोटी हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं। माँ यशोदा के हाथ में रस्सी छोटी होने का कारण भगवान् श्यामसुंदर नहीं थे। क्योंकि भगवान् ने रस्सी से न बंधने के लिए अपने शरीर को तो बड़ा नहीं किया था फिर माँ यशोदा क्यों नहीं बाँध पायी। इसका कारण एक तो क्रोध के कारण बांधना चाहती थी और दूसरी ओर प्रेम के कारण उन्हें बाँधने में संकोच हो रहा था इसी कारण रस्सी छोटी रह जाती थी। माँ के क्रोध और संकोच के कारण दो अंगुल का फर्क रहा। मन में अगर किसी प्रकार का संशय है तो इश्वर को नहीं बाँधा जा सकता। तात्पर्य यह है कि भगवान् भक्ति के बंधन से बन्ध सकते हैं। माता सीता और राधारानी भक्ति का स्वरुप है। एक बार भक्ति के बंधन में जकड़े जाने के पश्चात इश्वर भक्ति देवी का ही अनुसरण करते दिखाई देते है। श्रीराम विवाह में माँ सीता की चुनरी से बंधे श्री राम श्री सीता के पीछे पीछे चलकर विवाह पूर्ण करते हैं।
जो इश्वर का पीताम्बर असीम है और जिसका कोइ छोर नहीं है जिसकी सीमा नहीं है वह इश्वर भी जब भक्ति की चुनरी के साथ बंधता है तो ससीम हो जाता है और फिर वह पकड़ा जा सकता है।

जय श्री राम
05.12.2013

Sunday 29 December 2013

ईश्वर की समदर्शिता


जय राम जी की।




ईश्वर समदर्शी हैं अथार्त ईश्वर सब पर समान दृष्टि रखते हैं| इस धारणा से हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि ईश्वर सबको समानता से देखते हैं| इस  दृष्टिकोण से हम यह मानते हैं कि हम छोटे हैं अथवा बड़े, निर्बल है या बलवान, ज्ञानी हैं या अज्ञानी, धनहीन हैं या धनवान, ईश्वर हम सब पर समदृष्टि रखते हैं| इसको और विस्तार देकर हम यह भी मान सकते हैं कि दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु-असाधु, सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊँच-नीच, अमृत-विष, सुजीवन (सुंदर जीवन)-मृत्यु, माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर, सम्पत्ति-दरिद्रता, रंक-राजा, ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग्य यह अपने आपमें विपरीत होकर भी ईश्वर की समदृष्टि के दृष्टिकोण के द्वारा समान रूप से देखे जाते हैं| ईश्वर भेदबुद्धि नहीं रखते और सबको समान समझते हैं|

 अब प्रश्न यह उठता है कि फिर श्रीरामजी ने सुग्रीव को प्रेम और बाली को मृत्यु क्यों दी, क्यों श्री हनुमानजी से प्रथम भेंट में ही श्री लक्ष्मणजी के सामने श्री हनुमानजी को “ तुम मम प्रिय लक्ष्मण से दूना “ और फिर रावण वध के पश्चात अयोध्या में अपने सब मित्रों को श्रीभरत से दूना प्रिय बताया| अगर ईश्वर समदर्शी हैं तो ईश्वर दूना और चौगुना की भाषा क्यों बोलते हैं|

 अब प्रश्न यह भी उठता है कि अगर कोई बलवान किसी निर्बल को मारता है तो ईश्वर को क्या, समदर्शी होने हेतु निर्बल की रक्षा नहीं करनी चाहिए? क्योंकि ईश्वर समदर्शी हैं उनकी दृष्टि में निर्बल और बलवान समान हैं, तो इसमें भी ईश्वर के समदर्शी होने की सार्थकता सिद्द नहीं होती|


आओ समझे श्रीरामचरितमानस में बाली के प्रसंग के सन्दर्भ से:-

यह सबको ज्ञात है कि बाली जो पुन्यभिमान का रूप है वह बाली रावण को हरा कर छ: महीने तक अपनी काख में दबा कर एक प्रमाणपत्र की तरह लोगों को दिखाता फिरा था| बाली रावण को मार तो सकता नहीं था पर अभिमान हेतु रावण पर अपनी विजय को दर्शाता फिरा, यह जानकर भी कि ईश्वर अवतार लेकर रावण को मारने वाले हैं|

 जब बाली सुग्रीव से युद्ध करने निकला तो उसकी पत्नी तारा ने बताया कि सुग्रीव ने जिनसे मित्रता की है वे बहुत बलवान हैं तो बाली बोला वह तो साक्षात ईश्वर हैं| बाली ने ईश्वर के स्वरूप को जानने की घोषणा भी की, बाली जानता था कि ये ईश्वर हैं फिर भी वह युद्ध करने गया तब श्रीतुलसीदास जी ने लिखा “अस कहि चला महा अभिमानी “ तात्पर्य यह है कि जिसकी वाणी में ज्ञान होने पर भी भीतर अभिमान भरा हो तो वह तो महा अभिमानी है | इसीलिए श्रीराम बाली को बाण मारते हैं और बाण लगते ही बाली का अहंकार दूर हो गया| अब केवल पुन्य रह गया| तब बाली ने पूछा कि “ मैं बैरी सुग्रीव पियारा “ तो श्रीराम ने बाली से कहा, मुझे बाध्य होकर तुम्हारे ऊपर बाण चलाना पड़ा| मेरे बाण चलाने का मतलब यही है कि फोड़ा होने पर जैसे चिकित्सक अस्त्र द्वारा फोड़े को काट डालता है यह अभिमान भी एक फोड़ा था जिसे मैंने काट दिया।इसके पश्चात् श्रीराम ने बाली को प्राण रखने को कहा| परन्तु बाली बोला मेरा जीवन तो आपके दर्शन से ही सार्थक हो गया अब मै प्राण नहीं रखना चाहता।  तब प्रभु श्री राम बोले की चलो यहाँ नहीं रहना चाहते तो मेरे धाम चलो तुम्हारा धाम मैंने सुग्रीव को दे दिया तुम मेरे धाम चलो | प्रभु के प्रेम में भी कृपा है और क्रोध में भी कल्याण है । सुग्रीव से प्रेम किया और उसे राज्य दिया, बाली पर प्रहार किया उसे अपना धाम दे दिया ।

माता शबरी ने प्रभु श्रीराम को सुग्रीव से मित्रता करने को कहा था क्योंकि वह जानती थी कि सुग्रीव निरभिमानी है और बाली अभिमानी है| माता सीता का पता अभिमान के रहते हुए कोई नहीं लगा सकता क्योंकि भक्ति केवल अभिमान त्यागने से ही प्राप्त हो सकती है|

ईश्वर जब तक निराकार, निर्गुण है वह सूर्य की भांति सबको समान रूप से प्रकाश देते हुए समदर्शी है। जब वही ईश्वर आकार लेकर अवतरित होता है तो वह भी गुणात्मक हो जाता है और उसके यहाँ भी एक दुनी दो और दो दुनी चार होता प्रतीत होता है।

जय श्रीराम

29.12.2013


Wednesday 18 December 2013

श्रीहनुमानजी

श्रीहनुमानजी









जय रामजी की |

माता सीता के हरण के पश्चात श्रीराम जी ने सुग्रीव को माता सीता का पता लगाने का काम सौंपा और सुग्रीव ने अनगनित वानर इकठ्ठे कर दिए|  श्रीराम जी ने वह अंगूठी जिस पर राम लिखा था श्री हनुमान जी को  दी और उस अंगूठी को श्री हनुमान जी ने मुंह में डाल लिया| और जब लंका में अशोक वृक्ष पर श्री हनुमान जी बैठे थे तो वह अंगूठी माता सीता के उपर डाल दी|

 आओ इस पर विचार करें:-

माता सीता इस ब्रहमांड के सबसे बड़े वेदांत परम्परा को मानने वाले श्री जनक की पुत्री है| वेदांत को मानने वाले देह अभिमान से ऊपर होते हैं| माता सीता का जन्म वैसे भी किसी देह से उत्पन्न नहीं हुआ था तभी हम माता सीता को वैदेही भी कहते हैं और जनकपुर में सब व्यक्ति ब्रहमज्ञानी हैं इसी कारण वश उस राज्य को विदेहराज भी कहा जाता है| उस राज्य में कोई भी निवासी देह का अभिमान करने वाला नहीं होता सब इस देह अभिमान से उपर उठे होते हैं| इसी कारणवश माता सीता जिनको हम लक्ष्मी, भक्ति और शक्ति भी कहते हैं उन्हें बिना किसी प्रयास के प्राप्त हो गयीं|

श्रीराम और श्री लक्ष्मण वन में माता शबरी के कथनुसार सुग्रीव जी को खोज रहे थे तब सुग्रीव जी ने श्री राम और श्री लक्ष्मण को देख कर डरते हुए हनुमान जी से कहा कि ये जो दो सिंह पुरुष वन में विचर रहें हैं इनका पता लगाओ कहीं ये बाली के भेजे हुए ना हो और मेरा वध करने आयें हो| तब श्री हनुमान जी ने ब्राह्मण का रूप धारण किया और प्रभु श्री राम के सम्मुख होकर उनका परिचय माँगा| प्रभु ने कहा कि हम कोसलराज दशरथ के पुत्र हैं और पिता का वचन मानकर वन में आयें हैं| हमारे राम-लक्ष्मण नाम हैं, हम दोनों भाई हैं | मेरी पत्नी सीता को किसी राक्षस ने हर लिया और हम उसे ही खोज रहें हैं| यह तो थी हमारी कथा अब आप अपनी कथा सुनाएँ| प्रभु को पहचान कर श्री हनुमान जी ने स्तुति की और कहा आपका परिचय पूछना तो न्याय था परन्तु आप मनुष्य की तरह मेरा परिचय क्यों पूछ रहें हैं| तब श्री हनुमान जी ने कहा :-

एकु मैं मंद मोहबस कुटिल ह्रदय अज्ञान |

पुनि प्रभु मोहि बिसरेउ दीनबंधु भगवान् ||

एक तो मैं यों ही मंद हूँ, दूसरे मोह के वश में हूँ, तीसरे ह्रदय का कुटिल और अज्ञान हूँ, फिर आपने भी मुझे भुला दिया|

तात्पर्य यह है कि यहाँ श्री हनुमान जी ने ये नहीं कहा की मै हनुमान हूँ, अंजनी पुत्र हूँ, पवनसुत हूँ, शंकर सुवन केसरीनंदन हूँ अपितु अपनी इस देह का परिचय ना देकर,  अपने दोषों को प्रगट करते हुए कहते हैं की प्रभु मैं आपको पहिचान नहीं सका| उनके इस तरह से परिचय देने से श्रीराम समझ गए कि हनुमानजी में देह अभिमान ना होकर देह होने का भी भान नहीं है| (वैसे भी वायु की  कोई देह नहीं होती )  और फिर श्रीराम ने निर्णय किया कि जिसको देह अभिमान नहीं है वह ही वैदेही का पता लगा सकता है| यह जानकार ही अपनी अंगूठी श्रीहनुमानजी को दी| जब वह अंगूठी श्रीहनुमानजी ने मुंह में डाली तो श्रीराम ने कारण पुछा तो श्रीहनुमान जी बोले प्रभु भक्ति माता को खोजने के लिए मुंह में राम का नाम होना आवश्यक है| अगर मुहं में रामनाम होगा तभी भक्ति देवी प्राप्त होंगी|

लंका में श्रीहनुमान जी अशोकवृक्ष पर बैठकर माता सीता का विलाप सुनते हैं जब माता सीता अशोकवृक्ष से अंगार मांगती हैं तब श्रीहनुमान जी मन में विचार करके अंगूठी डाल देते हैं यह सोचकर कि माता सीता को अंगार की अपेक्षा राम ही माँगना चाहिए| श्रीराम का प्राप्त होना ही सब दुखों का निवारण है|

आज के युग में भी हर व्यक्ति शक्ति, भक्ति और लक्ष्मी की खोज में लगा है, सारे प्रयास इनको प्राप्त करने में ही लग रहें हैं ये केवल दुवापर युग की ही बात नहीं है| परन्तु ये भक्ति ,शक्ति और लक्ष्मी  श्रीहनुमानजी जैसे देह अभिमान से ऊपर उठे व्यक्ति को ही प्राप्त होगी|

18.12.2013



Thursday 12 December 2013

सर्वव्यापी और सर्वसमर्थ ईश्वर।








जय राम जी की।

ईश्वर सर्वव्यापी और सर्वसमर्थ हैं, यह ईश्वर सर्वव्यापी होकर हमारे ह्रदय में भी विराजमान हैं तथा सर्वसमर्थ होकर हमारी सभी प्रकार की समस्याओं को दूर करने में भी समर्थ हैं| परन्तु ऐसा प्रतीत नहीं होता क्योंकि इस प्रकाश पुंज के रहते हुए भी हर प्राणी के ह्रदय में कलुषता एवं अन्धकार का सामराज्य विद्यमान हैं और हर जीव अनेको प्रकार की समस्याओं और दुखों से पीड़ित दिखाई जान पड़ता है| फिर जीव किस प्रकार अपनी समस्याओं और दुखों को दूर करे? जीव प्राय: अपनी समस्याओं और दुखों के निवारण हेतु प्रयास करता हुआ ईश्वर को पुकारता है परन्तु क्या ईश्वर जीव की इस पुकार को सदैव सुनता है और समस्याओं को सुलझाता भी है? आओ विचार करें श्रीरामचरितमानस के सन्दर्भ से:-



श्री जनकजी के दरबार में धनुष को भंग करने के लिए दूर दूर से अनेक राजा, कई देवता भी राजा का भेष धरकर और श्रीरामजी भी श्री विश्वामित्रजी के साथ उपस्थित थे| दरबार में श्रीराम और धनुष दोनों ही थे परन्तु श्री राम जी की मात्र उपस्थिति से धनुष भंग नहीं हो सकता था, जिस प्रकार जीव के ह्रदय में ईश्वर की मात्र उपस्थिति से उसकी धनुष रूपी समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। ईश्वर तो हर पल और हर स्थान पर सदा ही व्याप्त हैं और हर समस्या को दूर करने में समर्थ भी हैं परन्तु दुःख, समस्याएं और कष्ट भी विद्यमान हैं।
जब श्रीरामजी के जनकवाटिका में पुष्प तोड़ते समय ही माथे पर पसीना आ गया था उन के द्वारा धनुष के टूटने की कोई कल्पना भी कैसे कर सकता था ? अब प्रश्न यह उठता है कि वह धनुष कैसे टूटा और किसकी प्रेरणा शक्ति से श्रीराम धनुष तोड़ पाए। इस सन्दर्भ में गोस्वामीजी ने स्पष्ट लिख दिया कि जब श्रीराम ने जनकपुर के वासियों की आँखों में व्याकुलता देखी और श्रीसीता जी की प्रार्थना और शक्ति को महसूस किया तथा सब लोग धनुष टूटने की प्रार्थना करने लगे तभी श्रीराम उस धनुष को तोड़ने में सक्षम हुए |

निष्कर्ष यह निकलता है कि ईश्वर के द्वारा जो क्रिया संपन्न होती है उसके पीछे भक्त की प्रार्थना की शक्ति  ही होती है|  यहाँ प्रत्येक व्यक्ति यह सोचता है कि जो करेगा ईश्वर ही करेगा, हमें कुछ करने की आवश्यकता नहीं है परन्तु यह केवल तर्क की दृष्टि से ठीक लगता है। प्रश्न उठता है की  ईशवर को मानने का अर्थ निष्क्रियता है क्या? इस सिद्धांत के कारण अगर कोई व्यक्ति निष्क्रिय हो जाता है तो यह उसकी भूल है न कि इस सिद्धांत की। वास्तविकता तो यह है कि जीव की भूमिका के बिना ईश्वर की भूमिका अधूरी है। अथवा हम कह सकते हैं कि भगवान् भक्ति की शक्ति के अधीन होकर ही क्रिया करता है।

 जय राम जी
12.12.2013

Tuesday 3 December 2013

श्री सीता राम।

वर्णाश्रम धर्म दो विचारधाराओ को मान्यता देता है। वेदान्त और वेद। महाराज दशरथ वेद तथा महाराज जनक वेदान्त के प्रतीक है। वेद परम्परा सकामता को महत्त्व देती है जिसमे देवताओं की स्तुति और यज्ञों का वर्णन है। किस देवता की पूजा से क्या प्राप्त होता है और किस यज्ञ के करने से किस कामना की पूर्ति होती है।
वेदांत का दर्शन निष्कामता और वैराग्य को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान करता है।
महाराज दशरथ को मूर्तिमान वेद तथा महाराज जनक को मूर्तिमान वेदान्त कहा गया है। महाराज जनक ब्रह्माण्ड के सबसे बड़े ब्रह्मज्ञानी कहे गए हैं।और यह भेद इनके चरित्र द्वारा भी प्रदर्शित होता है। अब सवाल यह उठता है की इश्वर सकाम का है या निष्काम का। श्री रामचरित्रमानस में इसका उत्तर देते हुए बताया है की इश्वर सकाम और निष्काम दोनों विचारधाराओ में से किसी एक को भी मानने वाले को भी प्राप्त होता है। तभी इश्वर ने इन दोनों राजाओं की मन:स्थति जानकार स्वयं को दो भागो में विभाजित करके एक भाग को पुत्री के रूप में जनकजी के यहाँ प्रगट किया और दुसरे भाग को पुत्र के रूप में महाराज दशरथ के यहाँ प्रगट किया।
पिता पुत्र से कामना रखता है परन्तु पिता पुत्री को सदैव देता है किसी कामना की इच्छा के बगैर। इसका अभिप्राय यह है की इश्वर सकाम के घर पुत्र के रूप में और निष्काम के घर पुत्री के रूप में अवतरित होता है।
महाराज दशरथ को पुत्र के रूप में इश्वर को प्राप्त करने के लिए गुरु वशिष्ठ यग्य करने की अनुमति प्रदान करते हैं। और महाराज जनक लोक कल्याण हेतु जब (वर्षा ना होने पर गुरु आदेश देते हैं की जब राजा हल चलाये तो वर्षा होगी) हल चला रहे होते हैं तो उन्हें माता सीता बिना प्रयास के प्राप्त होती है।जो की लक्ष्मी, शक्ति और भक्ति हैं। इस प्रकार निष्कामता सकामता पर अपनी श्रेष्ठा साबित करती है। सकामता देह से जुडी है और निष्कामता देह अभिमान से उपर उठ कर आती है। तभी श्री सीता को वैदेहि भी कहते हैं जो देह से ही उत्पन्न नही हुई। अथवा जिनको देह अभिमान नहीं होता वहां वैदेह राज होता है। महाराज जनक का राज्य। इनके राज्य में सब निवासी देह से उपर उठ कर ब्रह्मज्ञानी हैं।
भक्तिस्वरूप माँ सीता और इश्वर राम की अभिन्नता विवाह मंडप में प्रदर्शित होती है। जब श्री राम अभिमान रूपी धनुष को भंग करके माँ सीता को जीतते हैं। और फिर जीती हुई सीता को श्री जनक द्वारा दान के रूप में ग्रहण करते हैं। जो केवल भगवान् राम द्वारा ही संभव है कि जीती हुई सीता को दान में लेना।

16:11:2013


भगवान् शिव का श्रंगार ।


जय राम जी की।








श्री तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में सर्प को विभिन्न प्रकार से संबोधित किया है और इसे भांति भांति प्रकार की भावनाओं से जोड़ा है।

माँ केकई को लोभ के सर्प ने डस लिया।
रावण को काम के सर्प ने डस लिया।
गरुड़ जी को संसय के सर्प ने डस लिया।

हम सर्प को किस किस तरह से लेते हैं और हमारे जीवन में सर्प किस तरह पारिभाषित होता है।
सर्प काल का प्रतीक होकर सब को भयभीत करता है। परन्तु भगवान् कालातीत हैं और श्री नारायण सर्प की शय्या पर शयन करते हुए इसे विश्राम देने वाला मानते हैं तो भगवान् शिव सर्प को आभूषण के रूप में स्वीकारते हुए क्रीडा की वस्तु समझते हैं। व्यक्ति मणि और स्वर्ण के आभूषण धारण करना चाहता है उसे सर्प से डर लगता है कहीं ये सर्प उसे डस ना ले।वह सर्प के आभूषण को धारण करने की कल्पना भी नहीं कर सकता। किन्तु भगवान् शिव व्यंग करते हुए कहते हैं कि संसार में मणि और स्वर्ण के आभूषण के लोभ ने जितनो लोगो को डसा है उसकी तुलना में वास्तविक सर्प कम भयानक है। व्यक्ति ये नहीं जानता की लोभ-सर्प मन और प्राण को निरन्तर डस रहा है और सर्प केवल शरीर को ही हानि पंहुचा सकता है।
शिव विवाह के समय शिव जी ने मोर पंख जो काम का प्रतीक है जिसे हर दूल्हा सिर पर धारण करता है उसकी जगह भी सर्प को धारण किया ये सत्य प्रगट करते हुए की जिस मस्तिक पर रामभक्ति की गंगा बह रही हो उस मस्तक पर कोई काम-सर्प पीड़ा नहीं पंहुचा सकता। हर प्राणी को किसी न कुसी बात का संशय होता है परन्तु कान में सर्प के कुण्डल डालने पर ये कहते हैं कि जिस कान से श्री राम कथा का श्रवण होता हो उसे संशय सर्प का क्या भय। हाथ में कंकन के स्थान पर सर्प के कंकन यह दर्शाते हैं कि जो हाथ निरंतर दान करता हो उस हाथ को लोभ सर्प से किया भय। शरीर पर अपावन चिताभस्म को धारण करके बताते हैं कि आज आपकी अपवित्रता का केंद्र यह शरीर जो अनेको प्रकार के पाप करता था ख़त्म हो गया और आप परम पावन बन गए । ना कोई घर और ना कोई कामना। मै भी यही हूँ चलो हमारी तुम्हारी मित्रता हुई।
स्वर्ग का वैभव प्राप्त होने पर भी उसकी आयु है और उसे एक दिन समाप्त होना हैं मृत्युलोक के विषयों की तो बात ही क्या है । भगवन शिव को देखकर उनका उन्मत आचरण देख कर उनके सबसे बड़े भक्ति के परमाचार्य और दाता होने का संदेह होता है। भगवान् शिव का उन्मत्त रूप केवल यही प्रगट करता है की स्वर्ग के विषय प्राप्त करने पर भी अन्य विषयों की अपेक्षा रह जाती है अवं एक मात्र भगवत प्रेम ही ऐसा दिव्य पदार्थ है कि जिसको पाने के बाद व्यक्ति को कुछ और पाने की अभिलाषा नहीं रह जाती।
भगवान् शिव् के सर पर द्वितीय का चंद्रमा है। अपूर्ण चंद्रमा को धारण करना भगवान् शिव की करुणा का दर्शन है। पूर्ण को सभी धारण करके नमन करते हैं परन्तु अपूर्ण को भी अपने मस्तक पर धारण करके लोकवन्दित बना देना शिव का ही कार्य है।

जय राम जी।
28-10-2013


सब दुखों का एकमात्र कारण।

जय राम जी की।

मै दुखी हूँ क्योंकि मेरा जीवनसाथी मेरा साथ नहीं देता, मुझे रोग भी हैं, मेरी संतान मेरे अनुकूल नहीं चलती, मेरे पास सुख के साधन कम है, पैसा भी कम है, रोजगार भी कम है, समाज में नाम भी कम है। मुझे प्यार भी कम मिलता है, सारा दिन डरता रहता हूँ किसी भी भोग में आनंद नहीं आता, रात को ढंग से नींद भी नहीं आती। हर तरह से दुखी रहता हूँ। पर एक बात को सोचकर हलकी सी ख़ुशी प्राप्त होती है की बहुत प्रयास करने पर भी अपनी कमी नहीं निकाल पाता हूँ। कभी कभी ज्ञानी का रूप धारण करके अपने पूर्वजन्मो के कर्मो के फलो को मानने का ढोंग करता दीखता हूँ।
दूसरों के द्वारा किये कर्म मुझे दुःख देते प्रतीत होते हैं। मुझे यह लगता है कि मेरे दुखी होने का कारण मै स्वयं ना होकर कोई अन्य व्यक्ति या उसके कर्म हैं।

यही बात श्रीरामचरितमानस में विस्तार पूर्वक समझाई गयी है। आओ समझें।

वनगमन होने के बाद वन में प्रभु श्री राम और माँ जानकी जमींन पर आनंद के साथ लेट गए और सोने लगे। प्रभु को जमींन पर सोते देखकर प्रेमवश निषादराज के ह्रदय में विषाद हो आया। उसका शरीर पुलकित हो गया और वह प्रेमसहित लक्ष्मणजी से वचन कहने लगा कि महाराज दशरथ का महल जो स्वभाव से ही सुंदर है, सुंदर तकिये और गद्दे हैं। जहाँ सुंदर पलंग और मणियो के दीपक हैं वही श्रीसीता और श्रीराम आज घास-फूस की साथरी पर थके हुए बिना वस्त्र के ही सोये हैं। कैकयी ने बड़ी कुटिलता की, वह सुर्यकुल्रूपी वृक्ष के किये कुल्हाड़ी हो गयी। उस कुबुद्धि ने सारे विश्व को दूखी कर दिया। श्रीराम-सीता को जमींन पर सोते हुए देखकर निषाद को बड़ा दुःख हुआ। तब लक्ष्मणजी ज्ञान,वैराग्य और भक्ति के रस से सनी हुई मीठी और कोमल वाणी बोले--हे भाई ! कोई किसी को सुख दुःख देने वाला नहीं है। सब अपने ही किये हुए कर्मो का फल भोगते हैं। आगे भी काफी कुछ ज्ञान दिया जिसे हम लक्ष्मण गीता कहते हैं उस पर विचार अभी नहीं। यह पढ़कर मै मंद बुद्धि विचार करने लगा कि प्रभु श्रीराम और माँ जानकी ने इस जन्म अथवा पूर्व जन्मो में क्या कर्म किये होंगे जो इनको इतना दुःख सहना पड़ रहा है। बहुत गहन विचार के बाद भी मै इसका कारण नहीं जान सका। तभी यह विचार आया कि श्री लक्ष्मण प्रभु राम अथवा माता सीता में तो दोष निकाल ही नहीं सकते। तब लक्ष्मण जी ने यह क्यों कहा।
श्री लक्ष्मणजी के कहने का तात्पर्य था कि रो कौन रहा है, दुखी कौन है? प्रभु राम और सीता माता तो सुख और आनंद के साथ कुश की शय्या पर सो रहें हैं दुखी तो निषादराज है और रो भी वही रहा है इसका अर्थ निषादराज आपके कर्म आपको दुःख दे रहे हैं।
जो कोई भी व्यक्ति इस संसार में किसी भी तरह से दुखी है वह केवल अपने ही कर्मो का फल भोगता है किसी दुसरे के किये किसी भी प्रकार के कर्म उसके लिए दुःख और सुख का कारण नहीं बन सकते।

Shri Ram Darbaar

श्री राम की शरण में जब विभीषण आये तो सुग्रीव ने कहा कि प्रभु यह शत्रु का भाई है , शठ है जान पड़ता है भेद लेने आया है। प्रभु श्री हंसकर बोले कि मेरा भेद जानने को तो आपने भी तो श्री हनुमान को भेजा था और आज आप मेरे परम भक्त हैं। दूसरी बात इतने ऋषि मुनि अनंत काल से मेरा भेद जानने का ही तो प्रयास कर रहें हैं और मै जो अवतरित हुआ हूँ अपना भेद देने के लिए ही तो हुआ हूँ। तथा जो मनुष्य मेरा भेद जानने का प्रयास करता है वो शठ कदापि नहीं हो सकता। उसे ले आइये। जब विभीषण जी शरण में आ गए तो प्रभु ने मुस्कुरा कर श्री हनुमान की ओर देखा। क्योकि श्री हनुमान जी ही विभीषण जी को लंका में न्योता देकर आये थे। हनुमान जी ने कहा प्रभु श्री विभीषण जी को शरण में आपको लेना ही पड़ता। प्रभु बोलो कि क्यों लेना पड़ता तो हनुमान जी ने कहा प्रभु आप का दरबार न्यायालय नहीं है की कोई मनुष्य पाप और पुण्य के हिसाब अनुसार आपकी कृपा या दंड प्राप्त करे। आप का दरबार तो एक ओषधालय है की कोई कितना और किसी भी प्रकार का रोगी हो आपने तो उसे शरण देकर स्वस्थ ही करना है।

इसी प्रकार आप जैसे प्रभु को भी मुझ जैसे रोगी को स्वस्था प्रदान करनी पड़ेगी । दंड का प्रावधान आपके पास नहीं है।

कर्म और कृपा

जय राम जी की।




मनुष्य कई विचारधाराओं को अपने मन में रखकर अपनी सहूलियत अनुसार उनका इस्रेमाल करता हुआ अपना विकास करने का पर्यास करता है। जब उसे सफलता प्राप्त होती है तो वह इसका श्रेय अपने कर्मो को अथवा अपनी बुध्धि या अपनी मेहनत को देता हुआ दीखता है। कभी कभी सबकी व्याख्या विस्तार से करता हुआ अंत में इस सफलता का श्रेय हरी कृपा को भी देता है। अक्सर कई मनुष्य के मन में यह संशय रहता है कि सफलता मेहनत से मिलती है , ईश्वर की कृपा से , अपने पूर्व जन्मो के संचित सत्कर्मो के फलानुसार या इस जन्म में प्राप्त श्रेष्ठ संस्कारो से। पूर्व जन्मो के संचित सत्कर्मो और इस जन्म में प्राप्त श्रेष्ठ संस्कारों की चर्चा हम इस समय ना करके इन्हें यहीं विराम देते हैं।

प्राय: यह देखा जाता है कि यह एक चर्चा का विषय बना रहता है कि मनुष्य मेहनत से सफलता प्राप्त करता है या इसमें ईश्वरीय कृपा का भी योगदान होता है अथवा केवल मेहनत ही करनी चाहिए या केवल हरी कृपा की ओर ही दृष्टि रखनी चाहिए। परन्तु संतोषजनक उत्तर की प्राप्ति एक अतृप्त इच्छा ही रह जाती है।

श्री रामचरितमानस में अगर यह लिखा है कि " होइहि सोई जो राम रची राखा " तो गीता के कर्म के उपदेश का क्या महत्व है।

आओ समझे

श्री राम और उनकी सेना समुन्द्र के इस पार है और समुन्द्र पर सेतु बना कर उस समुन्द्र को पार करना है। जाम्बवान जी ने नल और नील को बुलाकर कहा की श्री राम के प्रताप को स्मरण करके सेतु बनाओ। सारे वानर बहुत ऊँचे ऊँचे पर्वतो और वृक्षों को उठा लाकर नल और नील को देते हैं। वे अच्छी तरह से उनका सुंदर सेतु बनाते हैं।
जाम्बवान जी प्रभु श्री राम के पास आकर बोले कि प्रभु सेतु तो बन गया है परन्तु वह इतना संकीर्ण है की पूरी सेना को पार होने में बहुत अधिक समय लग जाएगा और निश्चित अवधि भी समाप्त हो सकती है।
कृपालु श्री राम सेतुबंध के तट पर खड़े होकर समुन्द्र का विस्तार देखने लगे। करुणा के मूल प्रभु के दर्शन के लिए सब जलचरों के समूह प्रकट हो गये। जिनके सौ सौ योजन के बराबर विशाल शरीर थे। वे सब प्रभु के दर्शन कर रहें हैं, हटाने से भी नहीं हट रहे हैं। उनकी आड़ के कारण जल नहीं दिखाई पड़ता। सारी सेना उन जलचरो की पीठ पर भी सवार होकर कुछ ही समय मे उस पार पहुच गयी।
सुग्रीव जी यह सब विस्मित होकर देखते जा रहे हैं की जब प्रभु के दर्शन देने से ही इतना विशाल सेतु निर्मित हो सकता था तो श्री राम ने वानरों से इतना परिश्रम क्यों करवाया। जब नहीं रहा गया तो सुग्रीव ने श्री राम से पूछ ही लिया। श्री राम ने हंसकर उत्तर दिया कि मेरी कृपा का सेतु तो आपसब के पुरुषार्थ द्वारा निर्मित सेतु पर खड़े होकर ही तो बना है।
अथार्त जब तक मनुष्य कर्म नहीं करता तो मेरी कृपा भी प्राप्त नहीं होती।

आओ कर्म और कृपा शब्दों को समझे ।
कर और म से कर्म बनता है जब कर में मै आ जाती है तो कर्म होता है और कृपा में म (मै) नहीं होता। कर सब कुछ ,पर मै को छोड़कर, यही श्री कृष्ण अर्जुन को कर्म का उपदेश देते हुए कहते हैं।


जय श्री राम

Jeev Ke Bhav

 जय राम जी की एक मनुष्य कितने भावों को महसूस करके अपना जीवन जीता है। ये तो अनगणित है और सब जानते हैं ,,,,पर मैं ,,,कहता हूँ ,,,कुछ बात समझाने के लिये,मनुष्य को जब देह रोग होता है तो वह जान जाता हैै और इस रोग के निवारण हेतु वह चिकित्सक के पास जाकर इसका इलाज करवाता है। और बिना किसी बहस क़े औषधि लेता है। चिकित्सक कुछ परहेज बताता है और कुछ औषधि भी देता है फिर औषधि लेने के नियम भी बताता है। जिस से उस रोग का निवारण हो सके, और रोगी चिकित्सक के परामॆश से स्वस्थता भी अनुभव करता है। परन्तु मन का रोग होने पर वह अपने को रोगी ना मानकर तकॆ वितकॆ में पङ कर दु:खौं को बढावा देता है। उस समय उसे एक ऐसे ग्यानी की तलाश होती है जो उसका उपचार कर सके। ये मन के रोग कैसे और क्योंकर होतें हैं? हर मनुष्य के मन मे हर समय अनेकों भावों का आवागमन चलता रहता है। मुख्यता काम, करोध, मद, लोभ और अहंकार का जोर अधिक रहता है। जैसे केवल तीन मुख्य रंगो (लाल, हरा, नीला) से अनेकों रंगो की रचना की जाती है उसी तरह इन पाँच भावों से भी अनेकों भावों की रचना होती है जैसे ममता, दया, राग, मोह, खुशी, दुख, वैराग्य, वीरता, कायरता, सन्देह, विश्वाश, डर, हीनता, दीनता, दान, लज्जा, भक्ति, संकोच, कृपा, उदारता, सम्मान, कलह, तिरस्कार, सावधानी, चंचलता, भजन, उपदेश, रस, विवेक, धैयॆ, उपहास,आशा, निराशा, त्याग, हिंसा इत्यादि। आजकल ये देखा जाता है कि हमारे पास सबकुछ होने पर भी मन खुश नही रहता। मन मे एक खालीपन रहता है। इसका अथॆ है कि हमे मन का रोग है परन्तु हम यह जानकर भी इसका उपचार करने की कौशिश नहीं करते जब तक यह मन का रोग हमारे तन का रोग नही बनता। इस तरह के मन के रोग कैसे ठीक हों यह तो सोचना ही पङेगा और इनका उपचार कैसे होगा यह भी जानना आवश्यक है। अभी राम राम 

भगवान् राम और भगवान् शिव

जय राम जी की।

स्वतंत्रता और नियंत्रण ये दो शब्द परस्पर विरोधी हैं। लेकिन एक दुसरे के पूरक हैं। स्वतंत्रता जीव की स्वाभाविक अभिलाषा है पर नियंत्त्रण भी आवश्यक है तथा नियंत्रण में कारावास की अनुभूति न हो इसलिए इसमे स्वतंत्रता भी आवश्यक है। शिव जी स्वतंत्रता के भगवान् हैं और राम जी नियंत्रण के भगवान है। भगवान् राम मर्यादा में रहते हैं और भगवान् शिव मर्यादा का उपहास उड़ाते दिखते हैं। आसुरी या राक्षसी प्रवर्ति के जीव स्वेच्छानुसार अपनी इच्छाओ की पूर्ति चाहते हैं तभी वे शिव भगवान् के वास्तविक स्वरूप को न समझने के कारण भगवान् शिव की पूजा में आस्था रखते हैं। प्रत्येक भोगवादी प्रवर्ति का व्यक्ति स्वेच्छाचार की छूट चाहता है तभी वह श्री शंकर भगवान् की भक्ति की ओर अग्रसर होता है। जबकि यह सिर्फ भ्रांत विचारो पर ही आधारित है। भगवान् शिव की नग्नता तथा उनके साथ जुड़े मादक पदार्थो में उसे अपनी ही इच्छा के दर्शन होते है। क्या श्री शंकर भगवान् का वास्तविक स्वरूप यही है? बाहरी दृष्टि से देखने पर मर्यादा के विरुद्ध दिखाई देने वाले भगवान् शंकर के कर्म उनके गहरे स्वरुप को दर्शाते हैं। मर्यादा का पालन करना एक व्यक्ति या समाज की आवशाक्ताओ के अनुसार ही बनाया गया है। जोकि हर समय और स्थान के लिए उपयोगी भी नहीं है। एक मनुष्य अपने आप में अलग होते हुए भी समाज का ही हिस्सा है और समाज को सुचारुरूप से चलाने के लिए किसी भी एक मनुष्य को पूर्णरूप से स्वेच्छा से चलने की अनुमति नहीं दी जा सकती तभी नियंत्रण की आवश्यकता होती है। जब शंकर भगवान् समाज में अथवा व्यकि में मर्यादा के पालन हेतु कारावास की स्थिति को अनुभव करते देखते हैं तो वह इस मर्यादा का उपहास उड़ाते दिखते हैं। जब एक मर्यादित व्यक्ति वस्त्रो के आवरण के बोझ से दबे होने पर भी कर्मो द्वारा अपनी कुंठित वासनाओं को उजागर होने से नहीं रोक पाता तो शंकर भगवान् अपनी नग्नता द्वारा अपनी श्रेष्टता सिद्ध करते हुए दिखते हैं। तात्पर्य यह है कि अगर कोई व्यक्ति आडम्बरो के वस्त्रों से अपनी अंदरूनी नग्नता को ढकने को मर्यादा का नाम देता है तो भगवान् शंकर अपनी बाहरी नग्नता की श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं ।इस बात से हम यह निष्कर्ष निकाल पाते हैं कि मनुष्य द्वारा निर्मित यह समाज चलाने हेतु हमें स्वतंत्रता और नियंत्रण दोनों की ही आवश्यकता होती है। जैसे किसी वाहन को सुचारुरूप से चलाने के लिए गति एवं गति निरोधक दोनों ही चाहियें ।

जय श्री राम