Friday, 14 March 2014

होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥ अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥




 जय श्री राम

* होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥


भावार्थ:-जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे। (मन में) ऐसा कहकर शिवजी भगवान्‌श्री हरि का नाम जपने लगे और सतीजी वहाँ गईं, जहाँ सुख के धाम प्रभु श्री रामचंद्रजी थे॥
यह प्रसंग उस समय का है जब माता सतीजी ने श्रीशिव भगवान् की बात पर विश्वास नहीं किया कि श्रीरामजी ही परमब्रह्म और ईश्वर हैं और माता सतीजी श्रीराम जी की परीक्षा लेने जा रही थी
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श्री शिव भगवान जो विश्वास के प्रतीक हैं, सदा सत्य बोलने वाले, त्रिकाल दर्शी, देवों के देव, ज्ञानी, योगी, और सतीजी के पति हैं और माता सती जिन्हें सारा संसार सर्श्रेष्ठ पतिवर्ता के रूप में पूजता है वह माता सती ही श्री शिव भगवान् जी के वचनों पर विश्वास नहीं कर पायी| तब श्रीशिवजी ने यह विचार किया कि श्रीरामजी ने कुछ और ही रचा है| जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। यह केवल और केवल माता सतीजी के सन्दर्भ में ही कहा जा सकता है कि साक्षात शिव भगवान के समझाने पर भी माता सती शिवभगवान जी की बात पर विश्वास नहीं कर सकीं| शंकरजी का यह कथन जीवमात्र के लिए नही है परन्तु केवल सती जी के सम्बन्ध में ही था। यह वचन उस स्थिति में उनके मुह से निकला जब उन्हें यह अनुभव हो चूका था कि श्रीराम जी ने सती जी के साथ जो लीला रच रखी है उसका कोई विशेष उद्देश्य है और वह होकर रहेगी। इसलिए शंकरजी की इस बात को जीव से घटाना ठीक नहीं। वैसे तो जो भगवान् के भक्त हैं और निश्चित रूप से प्रारब्भ पर निर्भर रहते हैं वे ऐसा कह सकते हैं और उनका कहना अनुचित नहीं होगा। क्योंकि प्रारब्भ का भोग अटल और अवश्यम्भावी होता है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं की प्रारब्भ पर निर्भर रहकर कुछ किया ही ना जाए। जो भक्त प्रारब्भ पर निर्भर रहते हैं वे भी भजन-ध्यानादि, परमार्थ- साधन तो करते ही हैं। अत: प्रारब्भ पर निर्भर रहनेवालोन को भी अपना कर्तव्य कर्म करते रहना चाहिए और प्रारब्भ को अवश्यम्भावी समझकर अनासक्ताभाव से भोगना चाहिए।यह हम जैसे मनुष्य के विषय की बात नहीं है क्योंकि हम बहुत ही सीमित सामर्थ्य और ज्ञान रखते हैं। तथा उस सीमित ज्ञान और सामर्थ्य के साथ किसी कार्य के पूर्ण होने की सम्भावना में भी संशय रहता है। कार्य पूर्ण न होने पर इसे श्रीरामजी की इच्छा अथवा होनी का नाम देना हम मनुष्य को शोभा नहीं देता। यह तो श्रीरामजी को दोषी करार करना हुआ जो की ठीक नहीं है।


आजके समय में प्रत्येक मनुष्य इस बात को एक दिन में अनेको बार दोहराता है| जब उसे उसके द्वारा किये गए किसी भी कर्म में वांछित सफलता प्राप्त नहीं होती| अपने आप को संतुष्ट करता हुआ वह इसे श्रीराम जी की एक रचना अथवा इच्छा होने का श्रेय देता दीखता है| उसकी मान्यता अनुसार तो इस संसार में कोई भी घटना अथवा दुर्घटना के पीछे श्रीरामजी की रचना अथवा इच्छा है| वह श्रीरामजी की इच्छा को मानकर मन में संतोष कर लेता है और अपनी असफलता के कारणों को जानने का प्रयास भी नहीं करता| और अपनी उन्नति का रथ रोक लेता है| पुन: वह इसे भी रामजी की ही इच्छा मानता है| क्या कोई मनुष्य श्री शिवभगवान जी से अथवा कोई स्त्री माता सतीजी से अपनी तुलना कर सकती है| क्या कोई भी मनुष्य शिव भगवान जैसे योगी, ज्ञानी ,त्रिकालदर्शी, सर्वसमर्थ, सर्वव्यापी होने का दावा कर सकता है| अगर नहीं तो उस मनुष्य को यह बात कहने का अधिकार नहीं है कि जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा।

हम जैसे मनुष्य अपने यथासंभव कर्म करें, पुरुषार्थ हेतु तत्पर रहें, सात्विक बुद्धि रखें और फिर सब कुछ करने पर अगर कुछ प्राप्त हो जाए तो श्रीराम कृपा कहें और अगर सब प्रयास करने पर भी सफलता ना मिले तो इसमें अपनी कमी को जानने का प्रयास करना चाहिए| दोषपूर्ण कर्म करने से, बिनाविचारे कार्य करने से, बिना पुरुषार्थ किये अथवा और भी किसी प्रकार की कमी रखते हुए अगर हम सफलता प्राप्त नहीं करते तो भी हम इसे राम इच्छा कहने का साहस नहीं करना चाहिए| अन्यथा हम श्री शंकर जी के वचन के अर्थ का अनर्थ करेंगे।

माँ सतीजी ने गलती करने के बाद भी ये नहीं विचारा था कि जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। ये श्रीशिव भगवान् जी ने विचारा था| अपनी कमी को श्रीराम जी की इच्छा या रचना ना माने। वर्ना हमारी प्रगति का मार्ग बंद हो जाएगा।

जय श्री राम

Tuesday, 4 February 2014

प्रभु श्रीरामजी की उदारता।



जय रामजी की।


माता सीता को जब रावण हरके ले जा रहा था तब मातासीता बहुत प्रकार से विलाप करने लगी जिसको सुनकर सभी जड़-चेतन जीव दुखी हो गए| गीधराज जटायु ने सीताजी की दुखभरी वाणी सुनकर पहचान लिया कि ये रघुकुलतिलक श्रीरामचंद्रजी की पत्नी है। नीच राक्षस माता सीता को लिए जा रहा है, जैसे कपिला गाय मलेच्छ के पाले पड़ गयी हो| वह बोला कि हे पुत्री सीते! भय मत करो। और जटायु रावण से युद्ध करने लगा और अपनी चोंचों द्वारा रावण के शरीर को घायल कर दिया तब रावण ने अपनी कटार निकालकर जटायु के पंख काट डाले | जटायु श्रीरामजी की अद्भुत लीलाका स्मरण करके पृथ्वी पर गिर पड़ा| कुछ समय पश्चात श्रीरामजी माता जानकी को खोजते हुए वहां पहुचे जहाँ जटायु श्रीरामजी के चरणों का स्मरण कर रहा था | कृपासागर श्रीरघुवीर ने अपने करकमल से उसके सिर का स्पर्श किया| श्रीरामजी का मुख देखकर उसकी सब पीड़ा जाती रही| तब धीरज धरकर जटायु ने ये वचन कहा –हे जन्म-मृत्यु के भय का नाश करने वाले श्रीराम! सुनिए | रावण ने मेरी ये दशा की है उसी दुष्ट ने जानकीजी को हर लिया है| हे प्रभु ! मैंने आपके दर्शनों के लिए प्राण रोक रखे थे | हे कृपानिधान ! अब ये चलना ही चाहते हैं| तब प्रभु श्रीरामजी ने कहा—हे तात! शरीर छोड़कर अब आप मेरे धाम को जाओ और सीताहरण की बात आप जाकर पिताजी से मत कहियेगा| यदि मै राम हूँ तो दशमुख रावण कुटुंबसहित वहां आकर स्वयं ही कहेगा| अखंड भक्ति का वर मांगकर जटायु श्रीहरि के परमधाम को चला गया| श्रीरामजी ने उसका  दाहकर्म यथायोग्य अपने हाथों से किया।

आओ इस प्रसंग के तत्व को समझें।|

रावण से युद्ध करने के बाद जब जटायु घायल होकर जमीन पर गिर पड़ा और दर्द से कराहने लगा तो क्या उसने ये नहीं सोचा होगा कि  माता सीता को बचाने का कार्य सर्वश्रेष्ठ कार्य था परन्तु यह करने  के बाद भी मेरी यह दुर्दशा हुई, मेरे पंख कट गए, पृथ्वी पर पड़ा हूँ, लहुलुहान हूँ, पीड़ा से कराह रहा हूँ और मृत्यु के निकट हूँ| जैसे हम सब यह सोचतें हैं कि दुसरो का भला करने के बाद भी हम क्यों दुखी रहते हैं| यह जटायु ने भी सोचा होगा| पर यह वही जटायु है जो अपने भाई सम्पाती के साथ सूर्य को पकड़ने गया था और सूर्य के नजदीक पहुंचकर सम्पाती के पंख जलने लगे और यह दोनों वापस लौट आये| मात्र एक छोटे से सूर्य को नहीं पकड़ पाए और अपने पंख भी गवां दिए| लेकिन माता सीता के लिए अपने पंखों की आहुति देने का यह परिणाम हुआ कि जिसके रोम रोम में अनंत कोटि के ब्रह्माण्ड हैं, जिसके प्रकाश से अरबों खरबों सूर्य प्रकाशित होते हैं| उन श्री रामजी को स्वयं चलकर जटायु के पास आना पड़ा, जटायु को उनके पास नहीं जाना पड़ा|  जटायु के सिर को गोद में रखकर श्रीरामजी ने कहा अगर आप प्राण रखना चाहते हैं तो प्राण रख सकते हैं| जटायु कहने लगे आपकी गोद में प्राण त्यागने से तो इस शरीर की सार्थकता सिद्ध हो जायेगी| श्रीरामजी ने फिर कहा कि परलोक जाकर मेरे पिता से सीताहरण के बारे में मत कहना और अगर मै राम हूँ तो रावण अपने कुटुंब सहित आकर स्वयं बताएगा अथार्त मै उसको मार डालूँगा| महात्मा जटायु पहले तो यह सोचकर विस्मित हो गए कि क्या इस मांसभक्षी पक्षी गिद्ध, जिसका जन्म अधम योनी में हुआ है उसको श्रीरामजी वही लोक दे रहें हैं जो लोक  श्रीरामजी ने अपने  पिता श्री दशरथजी  को दिया हैं| तभी तो कह रहे हैं कि वहां जाकर मेरे पिता को सीताहरण के बारे में ना बताना| पुन: जब जटायु ने श्रीरामजी को यह कहते सुना कि रावण अपने कुटुंब सहित जाकर स्वयं श्री दशरथ जी को बताएगा तो जटायु श्रीरामजी के आगे नतमस्तक हो गया कि अपने परम शत्रु रावण को भी क्या श्रीरामजी वही लोक देंगे जो लोक श्रीरामजी ने अपने पिता श्री दशरथ जी को दिया है|

अथार्त श्रीरामजी से वियोग होने पर श्री दशरथ ने प्राण त्याग दिए और दशमुख रावण के प्राण श्रीरामजी से योग (मिलने पर) होने पर निकले परन्तु दोनों का परिणाम एक ही हुआ| श्रीरामजी को कोई भी जीव प्रेम अथवा वैर से याद करे, परिणाम सुखद होगा।

4.02.2014

Tuesday, 31 December 2013

भक्ति और भगवान्



जय श्रीराम

असीम ब्रह्म कैसे ससीम होकर माँ कौशल्या अथवा यशोदा मैया की गोद में समां जाता है।

रामचरितमानस में जब प्रभु की भुजा काक्भुशुन्दी जी को पकड़ने दोड़ी तो वह भुजा सदा मात्र दो अंगुल के अन्तर से पीछे रही। और वृन्दावन में जब यशोदा मैया नटखट भगवान् श्यामसुंदर को बाँधने की कोशिश करती हैं तो सारे वृन्दावन की रस्सी भी मात्र दो अंगुल के फर्क से छोटी रह जाती है। 
जब भगवान् जी से पूछा गया की यह दो अंगुल का क्या रहस्य है तो वह मुस्कुराकर बोले एक अंगुल तो मेरी कृपा का है और दूसरी अंगुल जीव की इच्छा का है। जब तक जीव मुझे पकड़ने का प्रयास नहीं करेगा और फिर मै उस जीव पर कृपा नहीं करूँगा तो हमारा मिलन संभव नहीं होगा। अगर इश्वर और भक्त एक दुसरे को पकड़ने का पर्यास नहीं करते तो जीव और इश्वर का मिलन नहीं होगा।
इश्वर को श्रीराम विवाह के समय माँ सीता की पंचरंगी चुनरीके छोर द्वारा बाँधा गया और फिर श्यामसुंदर भगवान् जब राधारानी के बरसाने से रस्सी मंगवाई गयी तो भी भगवान् बन्ध गए।
जिस माँ की गोद में जाकर व्यापक ब्रह्म इतना छोटा हो गया उसके हाथ मे अगर रस्सी भी आकर छोटी हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं। माँ यशोदा के हाथ में रस्सी छोटी होने का कारण भगवान् श्यामसुंदर नहीं थे। क्योंकि भगवान् ने रस्सी से न बंधने के लिए अपने शरीर को तो बड़ा नहीं किया था फिर माँ यशोदा क्यों नहीं बाँध पायी। इसका कारण एक तो क्रोध के कारण बांधना चाहती थी और दूसरी ओर प्रेम के कारण उन्हें बाँधने में संकोच हो रहा था इसी कारण रस्सी छोटी रह जाती थी। माँ के क्रोध और संकोच के कारण दो अंगुल का फर्क रहा। मन में अगर किसी प्रकार का संशय है तो इश्वर को नहीं बाँधा जा सकता। तात्पर्य यह है कि भगवान् भक्ति के बंधन से बन्ध सकते हैं। माता सीता और राधारानी भक्ति का स्वरुप है। एक बार भक्ति के बंधन में जकड़े जाने के पश्चात इश्वर भक्ति देवी का ही अनुसरण करते दिखाई देते है। श्रीराम विवाह में माँ सीता की चुनरी से बंधे श्री राम श्री सीता के पीछे पीछे चलकर विवाह पूर्ण करते हैं।
जो इश्वर का पीताम्बर असीम है और जिसका कोइ छोर नहीं है जिसकी सीमा नहीं है वह इश्वर भी जब भक्ति की चुनरी के साथ बंधता है तो ससीम हो जाता है और फिर वह पकड़ा जा सकता है।

जय श्री राम
05.12.2013

Sunday, 29 December 2013

ईश्वर की समदर्शिता


जय राम जी की।




ईश्वर समदर्शी हैं अथार्त ईश्वर सब पर समान दृष्टि रखते हैं| इस धारणा से हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि ईश्वर सबको समानता से देखते हैं| इस  दृष्टिकोण से हम यह मानते हैं कि हम छोटे हैं अथवा बड़े, निर्बल है या बलवान, ज्ञानी हैं या अज्ञानी, धनहीन हैं या धनवान, ईश्वर हम सब पर समदृष्टि रखते हैं| इसको और विस्तार देकर हम यह भी मान सकते हैं कि दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु-असाधु, सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊँच-नीच, अमृत-विष, सुजीवन (सुंदर जीवन)-मृत्यु, माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर, सम्पत्ति-दरिद्रता, रंक-राजा, ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग्य यह अपने आपमें विपरीत होकर भी ईश्वर की समदृष्टि के दृष्टिकोण के द्वारा समान रूप से देखे जाते हैं| ईश्वर भेदबुद्धि नहीं रखते और सबको समान समझते हैं|

 अब प्रश्न यह उठता है कि फिर श्रीरामजी ने सुग्रीव को प्रेम और बाली को मृत्यु क्यों दी, क्यों श्री हनुमानजी से प्रथम भेंट में ही श्री लक्ष्मणजी के सामने श्री हनुमानजी को “ तुम मम प्रिय लक्ष्मण से दूना “ और फिर रावण वध के पश्चात अयोध्या में अपने सब मित्रों को श्रीभरत से दूना प्रिय बताया| अगर ईश्वर समदर्शी हैं तो ईश्वर दूना और चौगुना की भाषा क्यों बोलते हैं|

 अब प्रश्न यह भी उठता है कि अगर कोई बलवान किसी निर्बल को मारता है तो ईश्वर को क्या, समदर्शी होने हेतु निर्बल की रक्षा नहीं करनी चाहिए? क्योंकि ईश्वर समदर्शी हैं उनकी दृष्टि में निर्बल और बलवान समान हैं, तो इसमें भी ईश्वर के समदर्शी होने की सार्थकता सिद्द नहीं होती|


आओ समझे श्रीरामचरितमानस में बाली के प्रसंग के सन्दर्भ से:-

यह सबको ज्ञात है कि बाली जो पुन्यभिमान का रूप है वह बाली रावण को हरा कर छ: महीने तक अपनी काख में दबा कर एक प्रमाणपत्र की तरह लोगों को दिखाता फिरा था| बाली रावण को मार तो सकता नहीं था पर अभिमान हेतु रावण पर अपनी विजय को दर्शाता फिरा, यह जानकर भी कि ईश्वर अवतार लेकर रावण को मारने वाले हैं|

 जब बाली सुग्रीव से युद्ध करने निकला तो उसकी पत्नी तारा ने बताया कि सुग्रीव ने जिनसे मित्रता की है वे बहुत बलवान हैं तो बाली बोला वह तो साक्षात ईश्वर हैं| बाली ने ईश्वर के स्वरूप को जानने की घोषणा भी की, बाली जानता था कि ये ईश्वर हैं फिर भी वह युद्ध करने गया तब श्रीतुलसीदास जी ने लिखा “अस कहि चला महा अभिमानी “ तात्पर्य यह है कि जिसकी वाणी में ज्ञान होने पर भी भीतर अभिमान भरा हो तो वह तो महा अभिमानी है | इसीलिए श्रीराम बाली को बाण मारते हैं और बाण लगते ही बाली का अहंकार दूर हो गया| अब केवल पुन्य रह गया| तब बाली ने पूछा कि “ मैं बैरी सुग्रीव पियारा “ तो श्रीराम ने बाली से कहा, मुझे बाध्य होकर तुम्हारे ऊपर बाण चलाना पड़ा| मेरे बाण चलाने का मतलब यही है कि फोड़ा होने पर जैसे चिकित्सक अस्त्र द्वारा फोड़े को काट डालता है यह अभिमान भी एक फोड़ा था जिसे मैंने काट दिया।इसके पश्चात् श्रीराम ने बाली को प्राण रखने को कहा| परन्तु बाली बोला मेरा जीवन तो आपके दर्शन से ही सार्थक हो गया अब मै प्राण नहीं रखना चाहता।  तब प्रभु श्री राम बोले की चलो यहाँ नहीं रहना चाहते तो मेरे धाम चलो तुम्हारा धाम मैंने सुग्रीव को दे दिया तुम मेरे धाम चलो | प्रभु के प्रेम में भी कृपा है और क्रोध में भी कल्याण है । सुग्रीव से प्रेम किया और उसे राज्य दिया, बाली पर प्रहार किया उसे अपना धाम दे दिया ।

माता शबरी ने प्रभु श्रीराम को सुग्रीव से मित्रता करने को कहा था क्योंकि वह जानती थी कि सुग्रीव निरभिमानी है और बाली अभिमानी है| माता सीता का पता अभिमान के रहते हुए कोई नहीं लगा सकता क्योंकि भक्ति केवल अभिमान त्यागने से ही प्राप्त हो सकती है|

ईश्वर जब तक निराकार, निर्गुण है वह सूर्य की भांति सबको समान रूप से प्रकाश देते हुए समदर्शी है। जब वही ईश्वर आकार लेकर अवतरित होता है तो वह भी गुणात्मक हो जाता है और उसके यहाँ भी एक दुनी दो और दो दुनी चार होता प्रतीत होता है।

जय श्रीराम

29.12.2013


Wednesday, 18 December 2013

श्रीहनुमानजी

श्रीहनुमानजी









जय रामजी की |

माता सीता के हरण के पश्चात श्रीराम जी ने सुग्रीव को माता सीता का पता लगाने का काम सौंपा और सुग्रीव ने अनगनित वानर इकठ्ठे कर दिए|  श्रीराम जी ने वह अंगूठी जिस पर राम लिखा था श्री हनुमान जी को  दी और उस अंगूठी को श्री हनुमान जी ने मुंह में डाल लिया| और जब लंका में अशोक वृक्ष पर श्री हनुमान जी बैठे थे तो वह अंगूठी माता सीता के उपर डाल दी|

 आओ इस पर विचार करें:-

माता सीता इस ब्रहमांड के सबसे बड़े वेदांत परम्परा को मानने वाले श्री जनक की पुत्री है| वेदांत को मानने वाले देह अभिमान से ऊपर होते हैं| माता सीता का जन्म वैसे भी किसी देह से उत्पन्न नहीं हुआ था तभी हम माता सीता को वैदेही भी कहते हैं और जनकपुर में सब व्यक्ति ब्रहमज्ञानी हैं इसी कारण वश उस राज्य को विदेहराज भी कहा जाता है| उस राज्य में कोई भी निवासी देह का अभिमान करने वाला नहीं होता सब इस देह अभिमान से उपर उठे होते हैं| इसी कारणवश माता सीता जिनको हम लक्ष्मी, भक्ति और शक्ति भी कहते हैं उन्हें बिना किसी प्रयास के प्राप्त हो गयीं|

श्रीराम और श्री लक्ष्मण वन में माता शबरी के कथनुसार सुग्रीव जी को खोज रहे थे तब सुग्रीव जी ने श्री राम और श्री लक्ष्मण को देख कर डरते हुए हनुमान जी से कहा कि ये जो दो सिंह पुरुष वन में विचर रहें हैं इनका पता लगाओ कहीं ये बाली के भेजे हुए ना हो और मेरा वध करने आयें हो| तब श्री हनुमान जी ने ब्राह्मण का रूप धारण किया और प्रभु श्री राम के सम्मुख होकर उनका परिचय माँगा| प्रभु ने कहा कि हम कोसलराज दशरथ के पुत्र हैं और पिता का वचन मानकर वन में आयें हैं| हमारे राम-लक्ष्मण नाम हैं, हम दोनों भाई हैं | मेरी पत्नी सीता को किसी राक्षस ने हर लिया और हम उसे ही खोज रहें हैं| यह तो थी हमारी कथा अब आप अपनी कथा सुनाएँ| प्रभु को पहचान कर श्री हनुमान जी ने स्तुति की और कहा आपका परिचय पूछना तो न्याय था परन्तु आप मनुष्य की तरह मेरा परिचय क्यों पूछ रहें हैं| तब श्री हनुमान जी ने कहा :-

एकु मैं मंद मोहबस कुटिल ह्रदय अज्ञान |

पुनि प्रभु मोहि बिसरेउ दीनबंधु भगवान् ||

एक तो मैं यों ही मंद हूँ, दूसरे मोह के वश में हूँ, तीसरे ह्रदय का कुटिल और अज्ञान हूँ, फिर आपने भी मुझे भुला दिया|

तात्पर्य यह है कि यहाँ श्री हनुमान जी ने ये नहीं कहा की मै हनुमान हूँ, अंजनी पुत्र हूँ, पवनसुत हूँ, शंकर सुवन केसरीनंदन हूँ अपितु अपनी इस देह का परिचय ना देकर,  अपने दोषों को प्रगट करते हुए कहते हैं की प्रभु मैं आपको पहिचान नहीं सका| उनके इस तरह से परिचय देने से श्रीराम समझ गए कि हनुमानजी में देह अभिमान ना होकर देह होने का भी भान नहीं है| (वैसे भी वायु की  कोई देह नहीं होती )  और फिर श्रीराम ने निर्णय किया कि जिसको देह अभिमान नहीं है वह ही वैदेही का पता लगा सकता है| यह जानकार ही अपनी अंगूठी श्रीहनुमानजी को दी| जब वह अंगूठी श्रीहनुमानजी ने मुंह में डाली तो श्रीराम ने कारण पुछा तो श्रीहनुमान जी बोले प्रभु भक्ति माता को खोजने के लिए मुंह में राम का नाम होना आवश्यक है| अगर मुहं में रामनाम होगा तभी भक्ति देवी प्राप्त होंगी|

लंका में श्रीहनुमान जी अशोकवृक्ष पर बैठकर माता सीता का विलाप सुनते हैं जब माता सीता अशोकवृक्ष से अंगार मांगती हैं तब श्रीहनुमान जी मन में विचार करके अंगूठी डाल देते हैं यह सोचकर कि माता सीता को अंगार की अपेक्षा राम ही माँगना चाहिए| श्रीराम का प्राप्त होना ही सब दुखों का निवारण है|

आज के युग में भी हर व्यक्ति शक्ति, भक्ति और लक्ष्मी की खोज में लगा है, सारे प्रयास इनको प्राप्त करने में ही लग रहें हैं ये केवल दुवापर युग की ही बात नहीं है| परन्तु ये भक्ति ,शक्ति और लक्ष्मी  श्रीहनुमानजी जैसे देह अभिमान से ऊपर उठे व्यक्ति को ही प्राप्त होगी|

18.12.2013



Thursday, 12 December 2013

सर्वव्यापी और सर्वसमर्थ ईश्वर।








जय राम जी की।

ईश्वर सर्वव्यापी और सर्वसमर्थ हैं, यह ईश्वर सर्वव्यापी होकर हमारे ह्रदय में भी विराजमान हैं तथा सर्वसमर्थ होकर हमारी सभी प्रकार की समस्याओं को दूर करने में भी समर्थ हैं| परन्तु ऐसा प्रतीत नहीं होता क्योंकि इस प्रकाश पुंज के रहते हुए भी हर प्राणी के ह्रदय में कलुषता एवं अन्धकार का सामराज्य विद्यमान हैं और हर जीव अनेको प्रकार की समस्याओं और दुखों से पीड़ित दिखाई जान पड़ता है| फिर जीव किस प्रकार अपनी समस्याओं और दुखों को दूर करे? जीव प्राय: अपनी समस्याओं और दुखों के निवारण हेतु प्रयास करता हुआ ईश्वर को पुकारता है परन्तु क्या ईश्वर जीव की इस पुकार को सदैव सुनता है और समस्याओं को सुलझाता भी है? आओ विचार करें श्रीरामचरितमानस के सन्दर्भ से:-



श्री जनकजी के दरबार में धनुष को भंग करने के लिए दूर दूर से अनेक राजा, कई देवता भी राजा का भेष धरकर और श्रीरामजी भी श्री विश्वामित्रजी के साथ उपस्थित थे| दरबार में श्रीराम और धनुष दोनों ही थे परन्तु श्री राम जी की मात्र उपस्थिति से धनुष भंग नहीं हो सकता था, जिस प्रकार जीव के ह्रदय में ईश्वर की मात्र उपस्थिति से उसकी धनुष रूपी समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। ईश्वर तो हर पल और हर स्थान पर सदा ही व्याप्त हैं और हर समस्या को दूर करने में समर्थ भी हैं परन्तु दुःख, समस्याएं और कष्ट भी विद्यमान हैं।
जब श्रीरामजी के जनकवाटिका में पुष्प तोड़ते समय ही माथे पर पसीना आ गया था उन के द्वारा धनुष के टूटने की कोई कल्पना भी कैसे कर सकता था ? अब प्रश्न यह उठता है कि वह धनुष कैसे टूटा और किसकी प्रेरणा शक्ति से श्रीराम धनुष तोड़ पाए। इस सन्दर्भ में गोस्वामीजी ने स्पष्ट लिख दिया कि जब श्रीराम ने जनकपुर के वासियों की आँखों में व्याकुलता देखी और श्रीसीता जी की प्रार्थना और शक्ति को महसूस किया तथा सब लोग धनुष टूटने की प्रार्थना करने लगे तभी श्रीराम उस धनुष को तोड़ने में सक्षम हुए |

निष्कर्ष यह निकलता है कि ईश्वर के द्वारा जो क्रिया संपन्न होती है उसके पीछे भक्त की प्रार्थना की शक्ति  ही होती है|  यहाँ प्रत्येक व्यक्ति यह सोचता है कि जो करेगा ईश्वर ही करेगा, हमें कुछ करने की आवश्यकता नहीं है परन्तु यह केवल तर्क की दृष्टि से ठीक लगता है। प्रश्न उठता है की  ईशवर को मानने का अर्थ निष्क्रियता है क्या? इस सिद्धांत के कारण अगर कोई व्यक्ति निष्क्रिय हो जाता है तो यह उसकी भूल है न कि इस सिद्धांत की। वास्तविकता तो यह है कि जीव की भूमिका के बिना ईश्वर की भूमिका अधूरी है। अथवा हम कह सकते हैं कि भगवान् भक्ति की शक्ति के अधीन होकर ही क्रिया करता है।

 जय राम जी
12.12.2013

Tuesday, 3 December 2013

श्री सीता राम।

वर्णाश्रम धर्म दो विचारधाराओ को मान्यता देता है। वेदान्त और वेद। महाराज दशरथ वेद तथा महाराज जनक वेदान्त के प्रतीक है। वेद परम्परा सकामता को महत्त्व देती है जिसमे देवताओं की स्तुति और यज्ञों का वर्णन है। किस देवता की पूजा से क्या प्राप्त होता है और किस यज्ञ के करने से किस कामना की पूर्ति होती है।
वेदांत का दर्शन निष्कामता और वैराग्य को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान करता है।
महाराज दशरथ को मूर्तिमान वेद तथा महाराज जनक को मूर्तिमान वेदान्त कहा गया है। महाराज जनक ब्रह्माण्ड के सबसे बड़े ब्रह्मज्ञानी कहे गए हैं।और यह भेद इनके चरित्र द्वारा भी प्रदर्शित होता है। अब सवाल यह उठता है की इश्वर सकाम का है या निष्काम का। श्री रामचरित्रमानस में इसका उत्तर देते हुए बताया है की इश्वर सकाम और निष्काम दोनों विचारधाराओ में से किसी एक को भी मानने वाले को भी प्राप्त होता है। तभी इश्वर ने इन दोनों राजाओं की मन:स्थति जानकार स्वयं को दो भागो में विभाजित करके एक भाग को पुत्री के रूप में जनकजी के यहाँ प्रगट किया और दुसरे भाग को पुत्र के रूप में महाराज दशरथ के यहाँ प्रगट किया।
पिता पुत्र से कामना रखता है परन्तु पिता पुत्री को सदैव देता है किसी कामना की इच्छा के बगैर। इसका अभिप्राय यह है की इश्वर सकाम के घर पुत्र के रूप में और निष्काम के घर पुत्री के रूप में अवतरित होता है।
महाराज दशरथ को पुत्र के रूप में इश्वर को प्राप्त करने के लिए गुरु वशिष्ठ यग्य करने की अनुमति प्रदान करते हैं। और महाराज जनक लोक कल्याण हेतु जब (वर्षा ना होने पर गुरु आदेश देते हैं की जब राजा हल चलाये तो वर्षा होगी) हल चला रहे होते हैं तो उन्हें माता सीता बिना प्रयास के प्राप्त होती है।जो की लक्ष्मी, शक्ति और भक्ति हैं। इस प्रकार निष्कामता सकामता पर अपनी श्रेष्ठा साबित करती है। सकामता देह से जुडी है और निष्कामता देह अभिमान से उपर उठ कर आती है। तभी श्री सीता को वैदेहि भी कहते हैं जो देह से ही उत्पन्न नही हुई। अथवा जिनको देह अभिमान नहीं होता वहां वैदेह राज होता है। महाराज जनक का राज्य। इनके राज्य में सब निवासी देह से उपर उठ कर ब्रह्मज्ञानी हैं।
भक्तिस्वरूप माँ सीता और इश्वर राम की अभिन्नता विवाह मंडप में प्रदर्शित होती है। जब श्री राम अभिमान रूपी धनुष को भंग करके माँ सीता को जीतते हैं। और फिर जीती हुई सीता को श्री जनक द्वारा दान के रूप में ग्रहण करते हैं। जो केवल भगवान् राम द्वारा ही संभव है कि जीती हुई सीता को दान में लेना।

16:11:2013