Tuesday 30 December 2014

माँ शबरी और कबंध|

                                                 30.12.2014
जय श्री राम |



अक्सर आजकल के प्राणी श्री तुलसीदास जी को ब्राह्मण का समर्थक और नारी का आलोचक मानते हैं| और श्री रामचरितमानस में लिखे दो वाक्यों का उदारहण देते हैं|

सापत ताड़त परुष कहंता| विप्र पूज्य अस गावहिं संता||

अथार्त श्री राम कहते हैं –अरे कबंध! शाप देता हुआ और तारणा देता हुआ ब्राहमण भी पूज्य है| लोग पढकर कहते हैं कि ब्राह्मणवाद का इतना समर्थन?

ढोल गवांर सूद्र पसु नारी | सकल ताड़ना के अधिकारी ||

इससे निष्कर्ष निकालते हैं कि श्री तुलसीदास जी स्त्री और शूद्र दोनों के विरोधी थे |

हम जब श्रीरामचरितमानस का पाठ करते हैं तो इस विश्वास को लेकर चलना चाहिए की इस पुरे ग्रन्थ में श्रीतुलसीदासजी ने जिस भगवान रामजी की लीला और चरित्र को  गाया है वह भगवान् किसी का समर्थन और विरोध नहीं करता| हमारे समझने में त्रुटी है|

आओ समझे:-

श्रीरामजी ने कहा कि शाप देता हुआ और फटकारता हुआ ब्राह्मण भी पूज्य है इस वाक्य के पीछे श्रीरामजी का अभिप्राय था कि दुर्वासा जी के अवगुण तो तू देख रहा है पर इनके जीवन में जो तप है, त्याग है, गुण है और जो विशेषताएँ हैं उनके उपर तेरी दृष्टि नहीं जाती| (क्योंकि कबंध के कहने का अभिप्राय था कि दुर्वासा ब्राहमण होकर भी बहुत क्रोधी हैं) उनमे क्रोध की मात्रा कुछ अधिक है परन्तु श्राप का कारण तो आपकी अमर्यादा ही थी| कबंध उसे बोलते है जिसके शरीर पर सिर नहीं होता| बाकी सारा शरीर होता है अथार्त सिर के अंग को बोलते हैं ब्राहमण, जैसे पैरों को शूद्र कहते हैं| जबकि शरीर में सब कुछ होना चाहिए इस कबंध को क्योंकि ब्राहमण के प्रति विद्वेष बुद्धि और द्वेष वृति थी तो इसने कहा कि मै इस सिर के बिना ही काम चलाऊंगा| ब्राहमण की पूज्यता की बात श्रीराम उसके अंदर की जो द्वेष बुद्धि है उसको मिटाने के लिए कहते हैं| क्योंकि कबंध श्री दुर्वासा के शाप से दुखी था| अहल्या जब  श्री राम जी की चरणधूलि के स्पर्श से चेतन हुइ तो उसने अपने पति गौतम जी को याद करते हुए उनके प्रति अपना आभार प्रकट किया जिसके शाप के कारण मुझ को श्री राम जी के दर्शन हुए| क्योंकि अहल्या की दृष्टि गुणदर्शन पर है और कबंध की दोषदर्शन पर| श्रीरामजी का अभिप्राय केवल कबंध के अन्तकरण में जो ब्राहमण के प्रति द्वेष भावना थी, केवल उसे ख़तम करना था|

 श्रीतुलसीदास जी ने ब्राहमण समर्थन का खंडन भी तुरंत ही कर दिया| श्रीरामजी कबंध से मिलने के पश्चात सीधे माँ शबरी के आश्रम पहुँचते हैं और जो माँ शबरी स्त्री और शूद्र दोनों हैं| माँ शबरी बोली प्रभु मै स्त्री हूँ और स्त्री में भी छोटी जाती की हूँ तब भगवान् ने स्पष्ट कह दिया मै तो जाती पाती को मानता ही नहीं हूँ| नारी और शूद्र के रूप में दिखाई देने वाली माँ शबरी को भगवान् ने जितना सम्मान दिया उतना सम्मान तो ब्राहमण वर्ण के किसी महात्मा को भी नहीं दिया| माता सीता का पता पूछने में श्रीराम जी ने माँ शबरी से उपयुक्त कोई पात्र रामचरितमानस में नहीं पाया| क्योंकि भक्त ही भक्ति देवी (माता सीता) का पता जानता है| श्री तुलसीदासजी ने ही माता सीता, माता अहल्या , माता अनुसुया, माँ शबरी, त्रिजटा, मंदोदरी, सुलोचना आदि की भी श्रेष्ठता सिद्ध की है| अगर श्रीतुलसीदास जी के मन में स्त्री जाती के प्रति कोई दुर्भावना होती तो माँ शबरी द्वारा झूठे बेर श्रीरामजी को खिलाने का प्रसंग वह कदापि ना लिखते|

प्रभु श्रीराम जी पूरी रामचरितमानस में अपनी भाषा को अपने भावो को पात्र अनुसार बदलते प्रतीत होते हैं| यही बात हमे समझनी होगी |

जब हम किसी लम्बी यात्रा से घर वापस लौटते हैं तो प्रियजन हमसे यात्रा के बारे में पूछते हैं अब सारी यात्रा का वर्णन तो संभव नहीं होता परन्तु जो जो विशेष होता है वही मनुष्य बखान करता है| उसी प्रकार श्रीरामजी जब वन से अयोध्या वापस आये तो सबने यात्रा के विषय में पूछा तो श्रीराम जी को पूरी वनवास यात्रा में दो ही पात्र याद रहे और वे थे माँ शबरी और जटायु गीध|  

अत: हमे भी अपनी दोष देखने की वृति को हटाकर गुण दर्शन की वृति को अपनाने का प्रयास करना चाहिए और यह केवल अपने भगवान् की भक्ति द्वारा ही संभव है|

जय राम जी की|




1 comment: