Wednesday 13 January 2016

श्रीलक्ष्मण जी ज्ञान और क्रोध|


जय रामजी की |

महाराज जनक को सीताजी हल चलाते हुए प्राप्त हुई| और सीताजी महाशक्ति हैं| जो शिवजी अपना धनुष दोनों हाथो से उठाते थे वो धनुष माँ शक्ति ने एक हाथ से उठा कर उसके नीचे की जमीन की सफाई कर दी| जब जनकजी ने यह देखा तो समझ गए की यह महाशक्ति हैं| तभी उन्होंने प्रण किया की इस महाशक्ति को शक्तिमान के सुपुर्द कर देना ही उनका कर्तव्य है| अत: जो कोई भी इस शक्तिशाली धनुष को तोड़ेगा वह ही शक्तिमान होगा| जनकजी का भाव था की जैसे रास्ते में हमे कोई वस्तु मिल जाए तो हमारा कर्तव्य है की हम उस वस्तु को उस वस्तु के स्वामी तक पहुचाये| या हम घोषणा कर देते हैं की कोई प्रमाण देकर अपनी वस्तु को ले जाएँ| महाराज जनक को शक्तिमान के प्रमाण की आवशकता थी|
जब कोई भी इस धनुष को तोड़ नहीं पाता तो वह दुखी होकर कहते यह पृथ्वी वीरो से खाली हो चुकी है और मुझे लगता है मेरी कन्या कुंवारी ही रह जायेगी और मैंने प्रण लेकर अपने आप को उपहास का पात्र बना लिया|
जनकजी की यह बात सुनकर लक्ष्मणजी को क्रोध आता है और बोलते हैं कि इस धनुष को मै ऐसे तोड़ सकता हूँ जैसे एक हाथी एक पेड़ की टहनी को तोड़ता है| उपस्थित लोग लक्ष्मणजी की इस बात को बहुत अनुचित मानते हैं क्योंकि इस धनुष के टूटने का प्रकरण तो माता सीता के विवाह से जुड़ा है परन्तु तुलसीदास जी लिखते हैं की यह सुनकर माता सीता और प्रभु श्रीराम अत्यधिक प्रसन्न होते हैं क्योंकि ये जानते हैं की लक्ष्मणजी किस ऊँचे ज्ञान से यह बात कह रहे हैं जो की इस समय का सबसे बड़ा ब्रह्मज्ञानी महाराज जनकजी भी नहीं समझ पा रहे| लक्ष्मणजी का तात्पर्य था कि माता सीता और प्रभु श्रीराम का विवाह तो शाश्वत है, इसका धनुष टूटने से कोई सम्बन्ध नहीं है, परब्रह्म ईश्वर ने अपने आप को दो भागो में विभाजित करके एक भाग को दशरथजी के और दुसरे भाग को जनकजी के यहाँ अवतरित किया है, अन्यथा ये तो सदैव से एक ही हैं| अगर कोई यह कहे की आज सुबह मुर्गे ने बाग़ नहीं दी तो सवेरा नहीं होगा| मुर्गे की बाग़ से सवेरा होने का कोई सम्बन्ध नहीं है इसी प्रकार धनुष टूटने से विवाह का कोई सम्बन्ध नहीं है| ब्रह्म और शक्ति का विवाह जनकजी के कराने पर ही होगा क्या? ये विवाह तो शाश्वत है|
इस सभा में लक्ष्मणजी ने दो विभूतियों को फटकाराएक थे ब्रह्मज्ञानी महाराज जनक और दुसरे उस समय के सबसे शक्तिशाली भगवान् परशुरामजी| एक को इसलिए की उसने कहा धनुष क्यों नहीं टूट रहा और परशुरामजी को इसलिए की वो बोले धनुष क्यों टुटा|
परशुरामजी पर क्रोध करने का तात्पर्य था कि महाराज जनक ने ये पहले ही घोषणा करी हुई थी कि जो भी आमंत्रित व्यक्ति इस धनुष को तोड़ेगा उससे माता सीता का विवाह होगा, ये बात भगवान् परशुरामजी को विदित थी तो उन्हें पहले ही महाराज जनक को मना करना चाहिए था परन्तु ऐसा नहीं हुआ क्योंकि भगवान् परशुरामजी को शिवजी के धनुष टूटने का स्वप्न में भी विश्वास नहीं था| यह धनुष शिवजी का था जब उनकी ममता इस धनुष से हट गयी तभी तो शिवजी ने यह धनुष महाराज जनक को दिया था और इसके टूटने पर सबसे अधिक ख़ुशी भी शिवजी को हुई| भगवान् परशुरामजी ने मन ही मन जनकजी को कहा कि आपने धनुष पर बाण खीचने के लिए क्यों नहीं प्रण किया इसे तुडवाया क्यों, तो जनकजी ने मन ही मन उत्तर दिया कि शिवजी ने केवल धनुष ही दिया था इसके साथ कोई तीर बाण नहीं दिया था अत: केवल धनुष का टूटना ही आवश्यक है| जिसका धनुष है उसकी ममता इस पर नहीं है तो भगवान् परशुरामजी की ममता का कोई महत्व नहीं है|
श्रीरामजी से जब पूछा गया कि ये धनुष किसने तोडा तो प्रभु राम बोलो कि यह पुराना धनुष था हाथ लगाते ही टूट गया| परशुराम जी को इस पर विश्वास नहीं हुआ परन्तु जब परशुरामजी का अपना धनुष स्वयं चलकर श्रीराम जी के पास चला गया तो वो प्रभु श्रीराम और लक्ष्मणजी को पहचान पाए|

जय श्रीराम