Monday 5 October 2015

राम राम जी |

मनु जी मानव जाति के आदिपुरुष कहलाते हैं, जिन्होंने मनुस्मृति लिखी थी, इस स्मृति में मनुष्य के कर्मो के लिए एक प्रकार का संविधान लिखा था| वर्णाश्रम धर्म में चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र ) तथा चार आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास) के लिए सारे दिशा निर्देश लिखे थे| किस प्रकार मनुष्य इन विधि विधान को मानकर अपना जीवन ख़ुशी से व्यतीत करे| महाराज मनु के शासनकाल में सर्वोच कोटि की व्यवस्था थी| कानून, व्यापारिक, सुरक्षा व्यवस्था आदि सब उच्चकोटि की थी| राजनीति के चारो चरण साम, दान, दण्ड और भेद व्याप्त थे| उन्होंने राष्ट्र का संचालन एक संविधान के अनुसार किया महाराजा मनु ने महसूस किया की राष्ट्र का संचालन बहिरंग दृष्टि से तो बहुत अनुकूल चलता हुआ प्रतीत होता है परन्तु उनके जीवन में संतोष और सुख कि अनुभूति नहीं हो रही| और इतनी सुंदर व्यवस्था भी आत्मसंतुष्टि नहीं दे पा रही| कहीं पर भी व्यवस्था अच्छी होने पर आरामदायक तो हो सकती है परन्तु अंदर से भी सुख और संतोष हो ये अनिवार्य नहीं है| अत: उन्होंने निर्गुण ब्रह्म को सगुन रूप में प्राप्त करने का निर्णय लिया और अपनी पत्नी शतरूपा के साथ वन में जाकर कठोर तपस्या की| फलस्वरूप उन्होंने दशरथ जी के रूप में जन्म लिया और निर्गुण ब्रह्म सगुन रूप में श्रीराम के रूप में प्रगट हुए|
इतनी सुदृढ़ व्यवस्था होने पर भी महाराज मनु को शांति और संतोष क्यों ना था? अगर हम किसी समारोह में जातें हैं और वहां जूतो की व्यवस्था बहुत उत्तम हो तो हमें जूतो की सुरक्षा का अनुभव तो होगा परंतु यह विचार भी मन में आएगा की यहाँ जूतो की चोरी होने का भय अवश्य है तभी इसकी सुरक्षा का प्रबंध किया गया है। इस उदारहण से हम महाराज मनु की व्यवस्था पर प्रकाश डालने का प्रयत्न कर रहें हैं। मनु जी ने एक ऐसे राज्य की कल्पना की जहाँ पर कोई भी व्यवस्था ना करनी पड़े। मनुष्य अंदर से ही इतना बदल जाए की इस प्रकार की व्यवस्था की आवश्यकता ना पड़े और यह सिर्फ श्रीराम ही कर सकते हैं। तभी उन्होंने तपस्या कर के राम को पुत्र रूप में प्राप्त किया।
राम को राज्य मिलने में विध्न आया। क्योंकि जब तक अयोध्या में लोभ रूपी कैकयी और ईर्ष्या रूपी मंथरा है रामराज्य कैसे स्थापित हो सकता है।इन दो मतों के इलावा सारे मत श्रीरामजी के साथ थे परंतु श्रीराम बहुमत को नहीं पूर्णमत को मानते हैं और वनवास को अपनाते हैं। क्योंकि मात्र अयोध्या में रामराज्य स्थापित करना उनका उद्देश्य नहीं था जब तक लंका से भी असंत को मिटा दे अथवा उन्हें संत में परिवर्तित न कर दे तब तक यह रामराज्य का सपना अधूरा रहता।
रावण के दो दूत शुक और सारण तीन दिन तक वानरों के साथ रहे परंतु वानर उन्हें पहचान ना सके। ऐसी सुरक्षा व्यवस्था थी रामजी की सेना की।परंतु ये दोनों श्रीरामजी की बड़ाई करते हुए पकडे जाते हैं और फिर रावण के दूत ना होकर रामजी के दूत बन जाते हैं। ऐसा ह्रदय परिवर्तन रामजी करते हैं। दिलो को जीत कर ही रामराज्य स्थापित हो सकता था। दूसरी तरफ रावण की व्यवस्था में श्री हनुमानजी मच्छर के रूप में भी लंकिनी द्वारा पकडे जाते हैं और परिणाम में वह लंकिनी भी रामभक्त हो जाती है|
तुलसीदासजी कहते हैं कि रामराज्य में राजनीति के केवल दो चरण थे दण्ड निति और भेद निति का सर्वथा अभाव था, अगर लोग सन्यासियों के हाथ में दण्ड नहीं देखते तो शायद दण्ड शब्द को ही भूल जाते| संगीत में अगर सुर ताल का भेद नहीं होता तो भेद शब्द भी भूल जाते| दण्ड और भेद निति का उपयोग केवल पशुता को नियंत्रित करने के लिए है| अथार्त रामराज्य की राजनीति केवल दो चरणों पर टिकी हुई थी| तुलसीदास जी का मानना था अगर राजनीति पशुवत होगी तो चार चरणों कि आवशकता है और अगर मानव राजनीति होगी तो उसको केवल दो चरण ही चाहिए| रामजी ने समाज से दण्ड और भेद हटा दिए क्योंकि अगर जब तक दण्ड और भेद रहेंगे मानव समाज पूर्ण नहीं होगा|
जीव में जब तक ईर्ष्या रूपी मन्थरा है, लोभ रूपी कैकई है, मोह रूपी रावण है, काम रूपी मेघनाथ है, अहंकार रूपी कुम्भकरण है, पुन्य अभिमान रूपी बाली है, वासना रूपी सूर्पनखा है, तब तक रामराज्य की स्थापना एक स्वप्न है| रामराज्य में कोई सुरक्षा प्रबंध नहीं थे और ना ही न्यायालय थे| सब निवासी अपने अपने कर्तव्य में लीन थे|

जय श्रीराम |


















Thursday 1 October 2015

जय रामजी की|

वर्णाश्रम धर्म मुख्यतः दो परम्पराओं को मान्यता देता है, वेद और वेदान्त | महाराज दशरथ वेद परम्परा को मानते हुए अपना राज्य चला रहे थे और महाराज जनक वेदांत परम्परा से अपने राज्य का शासन कर रहे थे| वेद परम्परा के अनुसार हमारे वेदों में जो लिखा है कि किस यज्ञ को करने से किया प्राप्ति होती है तथा किस कर्म से क्या फल मिलता है, भोगवादी होते हुए भी भोगो पर नियंत्रण रखते हुए जीवन यापन होता था, देह की इन्द्रियां नियंत्रण में रखते हुए अयोध्या के निवासी अपने अपने धर्म में लीन रहा करते थे तभी ईश्वर राम ने यज्ञ के फलस्वरूप अपने आप को अयोध्या में अवतरित किया| दशरथजी की विचारधारा, गुरु वशिष्ठ जो की विधि विधान को मानने वाले थे की जो वेदों में किसी भी कार्य को करने का विधान है उसी विधि के अनुसार चलकर ही धर्म कि व्याख्या करनी चाहिए, से प्रभावित थी| आसान शब्दों में सकामता की विचारधारा थी, अमुक कार्य के करने से अमुक फल की प्राप्ति हो जो इस देह से सम्बन्ध रखे| इसीलिए इसे देहनगर कहा जाता था| इस राज्य में कुछ गिनती के असंत को छोड़ दे तो बाकी सारे संत थे|

उसी समय एक दुसरे महाराजा श्रीजनक जी का भी राज्य था जहाँ का प्रत्येक निवासी वेदान्त की विचारधारा को मानने वाला था, अथार्त वेदों के विधि विधान से मुक्त, उनसे उपर उठे हुए, वो सब इस देह से उपर उठकर विचार करते थे, इस देह का उनकी नज़र में कोई मोल नहीं था, इसीलिए इसे विदेहनगर कहते थे| महाराज जनक इस ब्रहामांड के सबसे बड़े ब्रहमग्यानी कहलाये गए हैं| दूर दूर से ऋषि मुनि उनसे ब्रह्मज्ञान लेने आते थे| उनके लिए देह का उपयोग केवल ज्ञान अवम विचार के लिए था| रूप अवम राग से उपर उठे हुए थे, निष्कामता ही उनकी विचारधारा थी, किसी प्रकार के फल प्राप्ति की इच्छा से कोई भी कार्य नहीं किया जाता था| तभी ईश्वर ने अपने आप को दो भागो में विभाजित करके दुसरे भाग में सीता के रूप में, जनकजी के किसी प्रयास के बिना, अवतरित किया| इस राज्य में एक भी असंत नहीं था सारे ही संत थे|

एक तीसरी विचारधारा भी इन दोनो के समांतर  लंका में चल रही थी, वह थी देह्भोग की| लंका में रावण का राज्य था और वहां देह की इन्द्रियों के भोगो में ही निवासी लिप्त थे| वहां भोगो पर कोई नियंत्रण नहीं था| इसीलिए लंका को देह्भोगी नगर कहते थे| वहां एक दो को छोड़कर सभी असंत थे| यह अपने आप में बहुत सशक्त विचारधारा थी| और प्रान्तों के राजा जो महाराज दशरथ को भेंट दिया करते थे वो दशमुख को भी भेंट देते थे| लंका की व्यवस्था इतनी शक्तिशाली थी की श्री हनुमानजी के मच्छर रूप को भी लंकिनी ने पकड़ लिया था|
उस समय में दो महान ऋषि गुरु विश्वामित्र और गुरु वशिष्ठ भी  थे| जिनकी आपस की लड़ाई से शास्त्र भरे पड़े हैं| शास्त्र विद्या में गुरु वशिष्ठ और शस्त्र  विद्या में गुरु विश्वामित्र के समान कोई नहीं था परन्तु रावण के पास शास्त्र और शस्त्र दोनों का ही पूर्ण ज्ञान था वह समय आने पर शस्त्र और शास्त्र दोनों का उपयोग कर सकता था|

भगवान् परशुरामजी जो की भगवान् विष्णुजी के अवतार थे वह भी उसी समय थे| भगवान् परशुरामजी ने सहस्त्रार्जुन को पराजित कि था जिस सहस्त्रार्जुन ने रावण को पराजित किया था|
अब मन में एक प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि महाराज दशरथ, महाराज जनक, गुरु वशिष्ठ गुरु विश्वामित्र और भगवान् परशुरामजी के होते हुए भी श्रीराम को अवतार क्यों लेना पड़ा| क्या ये सब सक्षम नहीं थे रावण की विचारधारा को मिटाने के लिए|  अगर रावण को हराना या मारना ही एक मात्र उद्देश्य होता तो जो रावण बाली, सहस्त्रार्जुन और पाताल लोक के छोटे बालको द्वारा हराया जा चुका था उसे मारने के लिए श्रीराम को अवतार लेने की आवश्कता ही नहीं पड़ती|
इन सबका रावण को हराना केवल ऐसा ही है की बड़ी बुराई ने छोटी बुराई पर विजय प्राप्त की| क्यंकि इन सब की विचारधारा तो एक ही है| इनकी विचारधारा के रहते हुए रामराज्य स्थापित नहीं हो सकता था| श्री राम को केवल रावण का ही अंत ना करके उसकी विचारधारा का अंत करना था ताकि रामराज्य की स्थापना हो सके| वो केवल संभव था जब अच्छाई की बुराई पर विजय हो, ना की बुराई की बुराई पर विजय| तभी रावण और उसकी विचारधारा के अंत के पश्चात ही रामराज्य स्थापित हो सका, रामराज्य की स्थापना के लिए जो अयोध्या में असंत थे, केकई और मंथरा, उनके हृदय परिवर्तन की भी आवशकता थी|
अगले भाग में इस पर और चर्चा होगी|
जय श्रीराम |