Tuesday 30 December 2014

माँ शबरी और कबंध|

                                                 30.12.2014
जय श्री राम |



अक्सर आजकल के प्राणी श्री तुलसीदास जी को ब्राह्मण का समर्थक और नारी का आलोचक मानते हैं| और श्री रामचरितमानस में लिखे दो वाक्यों का उदारहण देते हैं|

सापत ताड़त परुष कहंता| विप्र पूज्य अस गावहिं संता||

अथार्त श्री राम कहते हैं –अरे कबंध! शाप देता हुआ और तारणा देता हुआ ब्राहमण भी पूज्य है| लोग पढकर कहते हैं कि ब्राह्मणवाद का इतना समर्थन?

ढोल गवांर सूद्र पसु नारी | सकल ताड़ना के अधिकारी ||

इससे निष्कर्ष निकालते हैं कि श्री तुलसीदास जी स्त्री और शूद्र दोनों के विरोधी थे |

हम जब श्रीरामचरितमानस का पाठ करते हैं तो इस विश्वास को लेकर चलना चाहिए की इस पुरे ग्रन्थ में श्रीतुलसीदासजी ने जिस भगवान रामजी की लीला और चरित्र को  गाया है वह भगवान् किसी का समर्थन और विरोध नहीं करता| हमारे समझने में त्रुटी है|

आओ समझे:-

श्रीरामजी ने कहा कि शाप देता हुआ और फटकारता हुआ ब्राह्मण भी पूज्य है इस वाक्य के पीछे श्रीरामजी का अभिप्राय था कि दुर्वासा जी के अवगुण तो तू देख रहा है पर इनके जीवन में जो तप है, त्याग है, गुण है और जो विशेषताएँ हैं उनके उपर तेरी दृष्टि नहीं जाती| (क्योंकि कबंध के कहने का अभिप्राय था कि दुर्वासा ब्राहमण होकर भी बहुत क्रोधी हैं) उनमे क्रोध की मात्रा कुछ अधिक है परन्तु श्राप का कारण तो आपकी अमर्यादा ही थी| कबंध उसे बोलते है जिसके शरीर पर सिर नहीं होता| बाकी सारा शरीर होता है अथार्त सिर के अंग को बोलते हैं ब्राहमण, जैसे पैरों को शूद्र कहते हैं| जबकि शरीर में सब कुछ होना चाहिए इस कबंध को क्योंकि ब्राहमण के प्रति विद्वेष बुद्धि और द्वेष वृति थी तो इसने कहा कि मै इस सिर के बिना ही काम चलाऊंगा| ब्राहमण की पूज्यता की बात श्रीराम उसके अंदर की जो द्वेष बुद्धि है उसको मिटाने के लिए कहते हैं| क्योंकि कबंध श्री दुर्वासा के शाप से दुखी था| अहल्या जब  श्री राम जी की चरणधूलि के स्पर्श से चेतन हुइ तो उसने अपने पति गौतम जी को याद करते हुए उनके प्रति अपना आभार प्रकट किया जिसके शाप के कारण मुझ को श्री राम जी के दर्शन हुए| क्योंकि अहल्या की दृष्टि गुणदर्शन पर है और कबंध की दोषदर्शन पर| श्रीरामजी का अभिप्राय केवल कबंध के अन्तकरण में जो ब्राहमण के प्रति द्वेष भावना थी, केवल उसे ख़तम करना था|

 श्रीतुलसीदास जी ने ब्राहमण समर्थन का खंडन भी तुरंत ही कर दिया| श्रीरामजी कबंध से मिलने के पश्चात सीधे माँ शबरी के आश्रम पहुँचते हैं और जो माँ शबरी स्त्री और शूद्र दोनों हैं| माँ शबरी बोली प्रभु मै स्त्री हूँ और स्त्री में भी छोटी जाती की हूँ तब भगवान् ने स्पष्ट कह दिया मै तो जाती पाती को मानता ही नहीं हूँ| नारी और शूद्र के रूप में दिखाई देने वाली माँ शबरी को भगवान् ने जितना सम्मान दिया उतना सम्मान तो ब्राहमण वर्ण के किसी महात्मा को भी नहीं दिया| माता सीता का पता पूछने में श्रीराम जी ने माँ शबरी से उपयुक्त कोई पात्र रामचरितमानस में नहीं पाया| क्योंकि भक्त ही भक्ति देवी (माता सीता) का पता जानता है| श्री तुलसीदासजी ने ही माता सीता, माता अहल्या , माता अनुसुया, माँ शबरी, त्रिजटा, मंदोदरी, सुलोचना आदि की भी श्रेष्ठता सिद्ध की है| अगर श्रीतुलसीदास जी के मन में स्त्री जाती के प्रति कोई दुर्भावना होती तो माँ शबरी द्वारा झूठे बेर श्रीरामजी को खिलाने का प्रसंग वह कदापि ना लिखते|

प्रभु श्रीराम जी पूरी रामचरितमानस में अपनी भाषा को अपने भावो को पात्र अनुसार बदलते प्रतीत होते हैं| यही बात हमे समझनी होगी |

जब हम किसी लम्बी यात्रा से घर वापस लौटते हैं तो प्रियजन हमसे यात्रा के बारे में पूछते हैं अब सारी यात्रा का वर्णन तो संभव नहीं होता परन्तु जो जो विशेष होता है वही मनुष्य बखान करता है| उसी प्रकार श्रीरामजी जब वन से अयोध्या वापस आये तो सबने यात्रा के विषय में पूछा तो श्रीराम जी को पूरी वनवास यात्रा में दो ही पात्र याद रहे और वे थे माँ शबरी और जटायु गीध|  

अत: हमे भी अपनी दोष देखने की वृति को हटाकर गुण दर्शन की वृति को अपनाने का प्रयास करना चाहिए और यह केवल अपने भगवान् की भक्ति द्वारा ही संभव है|

जय राम जी की|




Wednesday 26 November 2014

लंका दहन|

                                                             27.11,2014
जय रामजी की |


सुन्दरकांड में श्री हनुमानजी ने लंका का दहन किया परन्तु श्रीराम जी ने तो ऐसा कोई आदेश उन्हें नहीं दिया था| फिर भी श्री हनुमानजी ने लंका जला डाली| प्रभु ने तो श्री हनुमान जी को सीताजी के सम्मुख  अपने बल और विरह का वर्णन सुनाने के लिए ही भेजा था|
श्री हनुमान जी हर कार्य को ह्रदय से विचार कर के किया करते थे जैसे श्री तुलसीदास जी ने बार बार लिखा कि..इहाँ पवनसुत हृदयँ बिचारा....पूत रखवारे देखि बहु कपि कीन्ह बिचार .....तरु पल्लव महुं रहा लुकाई| करइ बिचार करों का भाई||.....कपि करि हृदयँ बिचार दीन्ह मुद्रिका डारि जब|| परन्तु लंका दहन करते समय श्रीहनुमान जी ने तनिक भी विचार नहीं किया|
जब श्रीहनुमानजी लंका  दहन करके प्रभु श्रीराम जी के पास लौट कर आये तो प्रभु ने पुछा कि आपने लंका जलाते समय विचार क्यों नहीं किया तो श्रीहनुमानजी बोले कि प्रभु लंका जलाई गयी है या जलवाई गयी है और अगर लंका जलवाई गयी है तो विचार भी जलवाने वाले ने किया होगा| और सत्य यह है कि मेरे पास लंका जलाने की योजना थी ही नहीं| परन्तु आपने मुझसे यह लंका जलवाई|
आओ समझे :-
रावण ने अनजाने में ही त्रिजटा जो जन्म से राक्षसी थी परन्तु तुरीयावस्था को प्राप्त थी जो की हम माता सीता को कहते हैं, उसे माता सीताजी की सेवा में नियुक्त किया था | तुरीयावस्था की परिभाषा करते हुए कहा जाता है जीवन में एक इच्छा पूर्ण होने के पश्चात् जब तक दूसरी इच्छा का उदय न हो, उसके बीच वाला काल ही तुरीय (समाधी ) काल होता है| अथार्त त्रिजटा एक पवित्र और उच्च अवस्था को प्राप्त कर चुकी थी | जब सारी राक्षसियाँ श्रीसीता जी को डराने लगी, तो त्रिजटा ने कहा मैंने एक स्वप्न देखा है कि एक वानर आया हुआ है और वह लंका को जलाएगा| त्रिजटा की यह बात सुनकर श्री हनुमानजी बड़े आश्चर्यचकित होकर सोचने लगे कि मै तो बहुत छिपकर आया था पर धन्य है यह त्रिजटा जिसने ये सपने में भी देख लिया| परन्तु लंका दहन की बात सुनकर बड़ी दुविधा में पड़ गए| प्रभु ने तो इस पर कुछ नहीं कहा, और त्रिजटा के स्वप्न को अन्यथा भी नहीं ले सकते क्योंकि यह सत्य ही कह रही है कि एक वानर आया है|  और फिर इस समस्या का समाधान श्रीहनुमानजी ने बड़े सुंदर रूप में किया |
जब मेघनाद ने श्रीहनुमानजी पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया तो वह जानबूझकर गिर पड़े और मेघनाद के नागपाश से बाँधने पर वे बंध भी गए| श्रीहनुमानजी ने सोचा कि मुझे लंका दहन का आदेश नहीं दिया गया था परन्तु फिर भी अगर प्रभु इस कार्य को करवाना चाहते हैं तो मै अपने सारे कर्म छोड़ देता हूँ| और बंधन में बन्ध जाता हूँ| जिन कार्यो का आदेश आपने मुझे नहीं दिया था परन्तु उन्हें करने का स्पष्ट रूप से मुझे संकेत मिल रहे हैं, इसीलिए मैंने बंधन में पड़ना स्वीकार किया |  रावण की सभा में जब रावण के आदेशानुसार राक्षस तलवार लेकर मारने लगे तो श्रीहनुमानजी ने अपने को बचाने का किंचितमात्र भी उपाय नहीं किया और सोचा प्रभु मै तो बंधा हुआ हूँ अगर आपको बचाना है तो आप ही बचाए| जब श्रीहनुमानजी यह सोच ही रहे थे, ठीक उसी समय विभीषण जी आ गए और उन्होंने कह दिया कि दूत को मारना नीति के विरुद्ध है| फिर रावण ने पुन: आदेश दिया कि इसकी पूंछ में कपड़ा लपेट कर घी तेल डालकर आग लगा दो, तब श्रीहनुमानजी ने मन ही मन प्रभु को हाथ जोड़ के कहा—“प्रभु”! अब तो निर्णय हो गया| मेरा भ्रम दूर हो गया और मै समझ गया कि आपने ही त्रिजटा के हाथों सन्देश भेजा था| नहीं तो भला लंका को जलाने के लिए मै कहाँ से घी-तेल-कपड़ा लाता, और कहाँ से आग लाता| आपने तो अपनी इस योजना  को पूरा करने का सारा प्रबंध रावण से ही करवा दिया तो फिर मै क्या विचार करता| वस्तुत: जीव तो एक यंत्र के रूप में है, आप जिस तरह उससे काम लेना चाहेंगे, वह तो वही करेगा| इसीलिए मै कहता हूँ कि लंका आपने ही जलवाई|


जय श्रीराम |

Saturday 13 September 2014

राम राम जी |

आज कलयुग के युग में भी हम अपने चारो ओर हर जीव को भगवान् की प्राप्ति हेतु प्रयास करते हुए देखते हैं| कोई जीव कर्म के मार्ग पर चलकर, कोई ज्ञान के मार्ग  से, कोई भक्ति के मार्ग पर चलकर अथवा कोई और किसी मार्ग पर चलकर भगवान् को प्राप्त करने का प्रयास करता हुआ प्रतीत होता है| हर जीव भगवान्, धर्म, ज्ञान और मोक्ष की बातें करता है, प्राय: आजकल हर जगह, हर उम्र के जीव की बातों में ईशवर की चर्चा होती है प्रत्येक मनुष्य अपनी अपनी भक्ति, अपने अपने ज्ञान, अपने अपने श्रेष्ठ कर्मो की श्रेष्ठता को सिद्ध करता हुआ दिखाई पड़ता है| कई बार तो चर्चा के विषय को भी दुसरे के विषय से श्रेष्ठ साबित करता है| अथार्त श्रीराम को श्री कृष्ण से अथवा ईश्वर को अल्लाह से श्रेष्ठ बताने का प्रयास करता है| चर्चा कैसी भी हो परन्तु चर्चा का विषय आनंद तो देता ही है|

कोई जीव कर्म के मार्ग को कठिन बताता है, कोई कहता है भक्ति बहुत कठिन है, किसी जीव को ज्ञान का मार्ग समझ में नहीं आता| वह जिस मार्ग पर स्वंय चलता है उसको वह सरल और दुसरे मार्गो को कठिन कहता है अथवा उनमे दोष निकालने से भी नहीं चुकता, अपने पक्ष में वो हमारे मूल ग्रंथो का भी उदारहण देता है जो की सत्य होते हैं| और दूसरा व्यक्ति अपने मार्ग में पूर्ण श्रद्धा रखते हुए भी पहले के ज्ञान और तर्क की क्षमता के आगे अपने आप को बेबस पाता है| यह सब जानते हैं कि मंजिल सबकी एक है जैसे काशीजी  में अनेको लोग प्रतिदिन अलग अलग स्थान से और अलग अलग मार्गो से आते हैं पर पहुँचते काशीजी  में ही हैं|

अब प्रश्न यह उठता है कि ईश्वर की प्राप्ति का कौन सा मार्ग हमें अपनाना चाहिए?

किसी जीव को ज्ञान मार्ग कठिन लगता है और किसी को भक्ति मार्ग| सरलता और कठिनता अथवा सुगमता और अगमता यह जीव जीव पर निर्भर है| जो व्यक्ति जिस कला में निपुण है, उसके लिए वही सुगम है, और जो निपुण नहीं है उसके लिए कठिन है|

जैसे काशीजी पहुँचने के मार्ग अलग अलग हैं, कोई किसी मार्ग से जाना पसंद करता है कोई किसी मार्ग से| कोई सड़क मार्ग से, कोई वायु मार्ग से कोई जल मार्ग से| हर जीव अपने सामर्थ्य, अपनी इच्छाशक्ति और अपनी योगत्या के अनुसार ही अपने गंतव्य स्थान की ओर चलने का विचार करता है| किसी की रीस करके अपना मार्ग बदलना उचित फल नहीं देता उसी प्रकार ईश्वर की प्राप्ति भी अपने ही चुने हुए मार्ग से की जानी चाहिए| पानी के उलटे बहाव को पार करने में जहाँ हाथी का बल काम नहीं आता और हाथी बहाव में बह जाता है वहीँ  छोटी सी मछली उलटे बहाव में भी तैर कर पार कर सकती है| और  अगर हम नमक और चीनी का मिश्रण बना कर उन्हें अलग अलग करना चाहें तो व्यक्ति कितना भी बुद्धिमान और कार्यकुशल हो वह अपनी असमर्थता प्रकट करता है परन्तु यही कार्य एक छोटी सी चींटी बड़ी सरलता से कर देती है|

हमें सरलता और कठिनता शब्द में उलझने की आवश्कता नहीं है| किन्तु हमें तो यह निर्णय करना चाहिए की हमारे लिए सुगम क्या है और अगम क्या है| हमारे अन्दर जिस भाव की भी अधिकता हो हमें उसी भाव को अपना मार्ग बना कर अपने ईश्वर की ओर चलने की चेष्टा करनी चाहिए|
श्रीरामचरितमानस में माँ शबरी भक्ति भाव से प्रभु श्रीराम को प्राप्त करती है|

सुग्रीव डर भाव से (सुग्रीव बाली के डर से ही श्रीराम के चरणों में आता है ) श्रीराम को प्राप्त करता है|
विभीषण लालच भाव से ( जैसे सुग्रीव के भाई बाली को मारकर श्रीराम ने सुग्रीव को राजा बना दिया) श्रीराम को प्राप्त करता है|
राक्षस शत्रु भाव से श्रीराम को प्राप्त करते हैं|

गोस्वामी तुलसीदास जी से जब पूछा गया की आपके श्रीराम डर भाव से भी, शत्रु भाव से भी, लालच भाव से भी और अन्य भाव से भी भजने पर मुक्ति दे देतें हैं पर यह तो किसी भी शास्त्र में नहीं है| तो श्री तुलसीदास जी बोले यह मेरे श्रीराम के कृपा शास्त्र में है|

जय श्री राम





Friday 11 April 2014

श्रद्धा और विश्वास

जय राम जी की |
  
भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्

भावार्थ:-श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वतीजी और श्री शंकरजी की मैं वंदना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते॥

यह श्रीरामचरितमानस के शुरू में ही श्री तुलसीदास जी ने लिखा है| आओ इस को समझने का प्रयास करें|

एक जीव के मन  में अनेको प्रकार के भाव उठते रहते हैं, कभी श्रद्धा का, कभी विश्वास का, कभी दया का, कभी क्रोध का, कभी परोपकार का, कभी अहंकार का, कभी काम का, कभी मोह का, कभी लोभ इत्यादि का| हर जीव इन अनेको भावो को महसूस करता है इसी कारण इसको विस्तार नहीं देते| यह सब भाव हर जीव केवल महसूस कर सकता है अगर हम जीव को किसी भी भाव को परिभाषित करने को कहें तो यह उस जीव के लिए अति कठिन कार्य होगा| चूँकि यह भाव हर जीव में उठते है तो दूसरा जीव इन भावो के नाम लेते ही इसे महसूस करके इस जीव की बात को समझ तो जाता है परन्तु वह भी इसे व्यक्त नहीं कर पाता| मुझे श्री राम भगवान् में विश्वास है यह सब कहते हैं पर विश्वास के भाव को व्यक्त करके समझा नहीं सकते| किसी भी भाव को हम आकार देने में समर्थ नहीं हैं| अगर कोई जीव विश्वास के भाव को समझना चाहे तो हम केवल उसे विश्वास के मिलते जुलते शब्द ही दे सकते हैं, समझाने में कठिनाई अनुभव करेंगे| श्रीरामचरितमानस में मुख्य मुख्य भावो को आकार दिया है जिससे प्राणी यह जान सके की वह अपने अच्छे भावो को कैसे  बल दे सके और निम्न भावो को ख़त्म कर सके|
श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वतीजी और श्री शंकरजी की वंदना करता हूँ|
अथार्थ श्रद्धा एक भाव है जिसका कोई रूप अथवा आकार नहीं होता उस श्रद्धा को माँ पार्वती का और विश्वास भाव को श्री शंकरजी का रूप देकर संबोधित किया है| श्रद्धा की मूर्ति माँ पार्वती हैं और विश्वास की श्री शंकर भगवान्| कैलाश पर्वत पर शंकर भगवान् विराजमान हैं, कैलाश पर्वत अचल और अडिग है अत: विश्वास भी अचल और अडिग होना चाहिए| भगवान् राम को हम सर्वश्रेष्ठ भाव (सच्चिदानंद) का रूप मानते हैं, श्री तुलसीदास जी ने श्री राम जन्म से पहले शिव पार्वती का प्रसंग भी इसलिए लिखा की जब तक जीव के ह्रदय में श्रद्धा और विश्वास नहीं होगा वह ईश्वर श्रीराम को जो की सर्वश्रेष्ठ भाव का रूप हैं, ह्रदय में धारण नहीं कर पायेगा| अगर जीव को अपने अंत:करण में ईश्वर को लाना है तो पहले जीव के हृदय में श्रद्धा और विश्वास को लाना होगा|

आओ इसे और विस्तार दें :-
भगवान् शिव और माँ सती श्री अगस्त्य जी के आश्रम में श्री राम कथा सुनने गए| वहां श्री अगस्त्य जी ने दोनों का पूजन अवम आदर सत्कार किया| भगवान् शिव ने सोचा की श्री अगस्त्य जी कितने महान होते हुए भी विनम्र हैं,  वक्ता होते हुए भी श्रोता का सम्मान कर रहें हैं और माँ सती जी ने सोचा की जो हमारा ही पूजन करता हो वह हमें क्या राम कथा सुनाकर ज्ञान देगा अत: माँ सती का श्री राम कथा में ध्यान ना लगा | जब वापस आते हुए माँ सती ने  श्री राम को पत्नी वियोग में रोते देखा, तथा शिवजी ने श्री राम को सच्चिदानंद परमधाम कहकर प्रणाम किया तो मन में संशय उत्पन्न हो गया| माँ सती प्रजापति दक्ष की कन्या है| दक्ष का भाव बुद्धि से है| एक व्यक्ति किसी कार्य में दक्ष है अथार्थ वह बुद्धिमान है, तो माँ सती बुद्धि की पुत्री हुई और बुद्धि में संशय अवम तर्क-वितर्क का भाव रहता है| विश्वास भाव के साथ श्रद्धा होती है संशय अथवा तर्क-वितर्क कदापि नहीं| इसलिए विश्वास रूपी शिव ने बुद्धि की पुत्री का त्याग कर दिया| जब माँ सतीके ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ की योगाग्नि में अपने शरीर को भस्म किया तो ईश्वर से वर माँगा की अगले जन्म में भी मुझे श्री शिवजी ही पति मिलें तो ईश्वर ने पुछा की क्या पिता भी बुद्धि {दक्ष} चाहिए तो माँ सती ने कहा अबकी बार चाहे मुझे पत्थर के घर जन्म दे देना जो की जड़ होता है परन्तु बुद्धि [दक्ष} पिता नहीं चाहिए | क्योंकि बुद्धि चलाये मान होती है और पत्थर जड़ होता है| और माँ सती का जन्म पर्वत राज {पत्थर } हिमालय के घर हुआ| और पर्वत के घर जन्म लेने से वह पार्वती कहलायीं| जब तक वह बुद्धि जो संशय और तर्क-वितर्क की थी श्रद्धा में परिवर्तित नहीं हुई, भगवान् शिव ने उसको नहीं अपनाया| माता पिता और सप्तऋषि ने चाहे कैसे भी इस श्रद्धा को विचलित करने का प्रयास किया हो यह श्रद्धा रूपी माँ पार्वती अडिग रही|  
इसी प्रकार मेघनाथ काम का भाव है, कुम्भकरण {जिसके घड़े के समान कान है और जो सदा अपनी प्रसंशा सुनना चाहता है} वह अहंकार का भाव है, रावण को मोह का प्रतीक कहा गया है| अथार्थ जीव का काम मर जाता है, अहंकार मर जाता है परन्तु मोह बड़ी ही कठिनाई से मरता है अत: श्री राम (सर्वश्रेष्ठ भाव ) को मोह को मारने में ही सबसे ज्यादा कठिन परिश्रम करना पड़ा| माता सीता को भक्ति,शक्ति और लक्ष्मी कहते हैं| श्री लक्ष्मण जी को वैराग्य,  श्री भरतजी को धरम का सार और श्री शत्रुघनजी को अर्थ के भाव का रूप दिया गया है| श्री हनुमान जी को सेवा, श्री सुग्रीव जी को डर अवम बालीजी को पुन्यभिमान का रूप बताया गया है|
श्री रामचरितमानस का पाठ करने से हमारे ह्रदय में जब श्रीराम (सर्वश्रेष्ठ भाव) आ जाता है तो सारे दूषित भावो का नाश होता है और जीव को इस प्रकार भक्ति प्राप्त होती है|

जय श्री राम




Friday 14 March 2014

होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥ अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥




 जय श्री राम

* होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥


भावार्थ:-जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे। (मन में) ऐसा कहकर शिवजी भगवान्‌श्री हरि का नाम जपने लगे और सतीजी वहाँ गईं, जहाँ सुख के धाम प्रभु श्री रामचंद्रजी थे॥
यह प्रसंग उस समय का है जब माता सतीजी ने श्रीशिव भगवान् की बात पर विश्वास नहीं किया कि श्रीरामजी ही परमब्रह्म और ईश्वर हैं और माता सतीजी श्रीराम जी की परीक्षा लेने जा रही थी
|
श्री शिव भगवान जो विश्वास के प्रतीक हैं, सदा सत्य बोलने वाले, त्रिकाल दर्शी, देवों के देव, ज्ञानी, योगी, और सतीजी के पति हैं और माता सती जिन्हें सारा संसार सर्श्रेष्ठ पतिवर्ता के रूप में पूजता है वह माता सती ही श्री शिव भगवान् जी के वचनों पर विश्वास नहीं कर पायी| तब श्रीशिवजी ने यह विचार किया कि श्रीरामजी ने कुछ और ही रचा है| जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। यह केवल और केवल माता सतीजी के सन्दर्भ में ही कहा जा सकता है कि साक्षात शिव भगवान के समझाने पर भी माता सती शिवभगवान जी की बात पर विश्वास नहीं कर सकीं| शंकरजी का यह कथन जीवमात्र के लिए नही है परन्तु केवल सती जी के सम्बन्ध में ही था। यह वचन उस स्थिति में उनके मुह से निकला जब उन्हें यह अनुभव हो चूका था कि श्रीराम जी ने सती जी के साथ जो लीला रच रखी है उसका कोई विशेष उद्देश्य है और वह होकर रहेगी। इसलिए शंकरजी की इस बात को जीव से घटाना ठीक नहीं। वैसे तो जो भगवान् के भक्त हैं और निश्चित रूप से प्रारब्भ पर निर्भर रहते हैं वे ऐसा कह सकते हैं और उनका कहना अनुचित नहीं होगा। क्योंकि प्रारब्भ का भोग अटल और अवश्यम्भावी होता है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं की प्रारब्भ पर निर्भर रहकर कुछ किया ही ना जाए। जो भक्त प्रारब्भ पर निर्भर रहते हैं वे भी भजन-ध्यानादि, परमार्थ- साधन तो करते ही हैं। अत: प्रारब्भ पर निर्भर रहनेवालोन को भी अपना कर्तव्य कर्म करते रहना चाहिए और प्रारब्भ को अवश्यम्भावी समझकर अनासक्ताभाव से भोगना चाहिए।यह हम जैसे मनुष्य के विषय की बात नहीं है क्योंकि हम बहुत ही सीमित सामर्थ्य और ज्ञान रखते हैं। तथा उस सीमित ज्ञान और सामर्थ्य के साथ किसी कार्य के पूर्ण होने की सम्भावना में भी संशय रहता है। कार्य पूर्ण न होने पर इसे श्रीरामजी की इच्छा अथवा होनी का नाम देना हम मनुष्य को शोभा नहीं देता। यह तो श्रीरामजी को दोषी करार करना हुआ जो की ठीक नहीं है।


आजके समय में प्रत्येक मनुष्य इस बात को एक दिन में अनेको बार दोहराता है| जब उसे उसके द्वारा किये गए किसी भी कर्म में वांछित सफलता प्राप्त नहीं होती| अपने आप को संतुष्ट करता हुआ वह इसे श्रीराम जी की एक रचना अथवा इच्छा होने का श्रेय देता दीखता है| उसकी मान्यता अनुसार तो इस संसार में कोई भी घटना अथवा दुर्घटना के पीछे श्रीरामजी की रचना अथवा इच्छा है| वह श्रीरामजी की इच्छा को मानकर मन में संतोष कर लेता है और अपनी असफलता के कारणों को जानने का प्रयास भी नहीं करता| और अपनी उन्नति का रथ रोक लेता है| पुन: वह इसे भी रामजी की ही इच्छा मानता है| क्या कोई मनुष्य श्री शिवभगवान जी से अथवा कोई स्त्री माता सतीजी से अपनी तुलना कर सकती है| क्या कोई भी मनुष्य शिव भगवान जैसे योगी, ज्ञानी ,त्रिकालदर्शी, सर्वसमर्थ, सर्वव्यापी होने का दावा कर सकता है| अगर नहीं तो उस मनुष्य को यह बात कहने का अधिकार नहीं है कि जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा।

हम जैसे मनुष्य अपने यथासंभव कर्म करें, पुरुषार्थ हेतु तत्पर रहें, सात्विक बुद्धि रखें और फिर सब कुछ करने पर अगर कुछ प्राप्त हो जाए तो श्रीराम कृपा कहें और अगर सब प्रयास करने पर भी सफलता ना मिले तो इसमें अपनी कमी को जानने का प्रयास करना चाहिए| दोषपूर्ण कर्म करने से, बिनाविचारे कार्य करने से, बिना पुरुषार्थ किये अथवा और भी किसी प्रकार की कमी रखते हुए अगर हम सफलता प्राप्त नहीं करते तो भी हम इसे राम इच्छा कहने का साहस नहीं करना चाहिए| अन्यथा हम श्री शंकर जी के वचन के अर्थ का अनर्थ करेंगे।

माँ सतीजी ने गलती करने के बाद भी ये नहीं विचारा था कि जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। ये श्रीशिव भगवान् जी ने विचारा था| अपनी कमी को श्रीराम जी की इच्छा या रचना ना माने। वर्ना हमारी प्रगति का मार्ग बंद हो जाएगा।

जय श्री राम

Tuesday 4 February 2014

प्रभु श्रीरामजी की उदारता।



जय रामजी की।


माता सीता को जब रावण हरके ले जा रहा था तब मातासीता बहुत प्रकार से विलाप करने लगी जिसको सुनकर सभी जड़-चेतन जीव दुखी हो गए| गीधराज जटायु ने सीताजी की दुखभरी वाणी सुनकर पहचान लिया कि ये रघुकुलतिलक श्रीरामचंद्रजी की पत्नी है। नीच राक्षस माता सीता को लिए जा रहा है, जैसे कपिला गाय मलेच्छ के पाले पड़ गयी हो| वह बोला कि हे पुत्री सीते! भय मत करो। और जटायु रावण से युद्ध करने लगा और अपनी चोंचों द्वारा रावण के शरीर को घायल कर दिया तब रावण ने अपनी कटार निकालकर जटायु के पंख काट डाले | जटायु श्रीरामजी की अद्भुत लीलाका स्मरण करके पृथ्वी पर गिर पड़ा| कुछ समय पश्चात श्रीरामजी माता जानकी को खोजते हुए वहां पहुचे जहाँ जटायु श्रीरामजी के चरणों का स्मरण कर रहा था | कृपासागर श्रीरघुवीर ने अपने करकमल से उसके सिर का स्पर्श किया| श्रीरामजी का मुख देखकर उसकी सब पीड़ा जाती रही| तब धीरज धरकर जटायु ने ये वचन कहा –हे जन्म-मृत्यु के भय का नाश करने वाले श्रीराम! सुनिए | रावण ने मेरी ये दशा की है उसी दुष्ट ने जानकीजी को हर लिया है| हे प्रभु ! मैंने आपके दर्शनों के लिए प्राण रोक रखे थे | हे कृपानिधान ! अब ये चलना ही चाहते हैं| तब प्रभु श्रीरामजी ने कहा—हे तात! शरीर छोड़कर अब आप मेरे धाम को जाओ और सीताहरण की बात आप जाकर पिताजी से मत कहियेगा| यदि मै राम हूँ तो दशमुख रावण कुटुंबसहित वहां आकर स्वयं ही कहेगा| अखंड भक्ति का वर मांगकर जटायु श्रीहरि के परमधाम को चला गया| श्रीरामजी ने उसका  दाहकर्म यथायोग्य अपने हाथों से किया।

आओ इस प्रसंग के तत्व को समझें।|

रावण से युद्ध करने के बाद जब जटायु घायल होकर जमीन पर गिर पड़ा और दर्द से कराहने लगा तो क्या उसने ये नहीं सोचा होगा कि  माता सीता को बचाने का कार्य सर्वश्रेष्ठ कार्य था परन्तु यह करने  के बाद भी मेरी यह दुर्दशा हुई, मेरे पंख कट गए, पृथ्वी पर पड़ा हूँ, लहुलुहान हूँ, पीड़ा से कराह रहा हूँ और मृत्यु के निकट हूँ| जैसे हम सब यह सोचतें हैं कि दुसरो का भला करने के बाद भी हम क्यों दुखी रहते हैं| यह जटायु ने भी सोचा होगा| पर यह वही जटायु है जो अपने भाई सम्पाती के साथ सूर्य को पकड़ने गया था और सूर्य के नजदीक पहुंचकर सम्पाती के पंख जलने लगे और यह दोनों वापस लौट आये| मात्र एक छोटे से सूर्य को नहीं पकड़ पाए और अपने पंख भी गवां दिए| लेकिन माता सीता के लिए अपने पंखों की आहुति देने का यह परिणाम हुआ कि जिसके रोम रोम में अनंत कोटि के ब्रह्माण्ड हैं, जिसके प्रकाश से अरबों खरबों सूर्य प्रकाशित होते हैं| उन श्री रामजी को स्वयं चलकर जटायु के पास आना पड़ा, जटायु को उनके पास नहीं जाना पड़ा|  जटायु के सिर को गोद में रखकर श्रीरामजी ने कहा अगर आप प्राण रखना चाहते हैं तो प्राण रख सकते हैं| जटायु कहने लगे आपकी गोद में प्राण त्यागने से तो इस शरीर की सार्थकता सिद्ध हो जायेगी| श्रीरामजी ने फिर कहा कि परलोक जाकर मेरे पिता से सीताहरण के बारे में मत कहना और अगर मै राम हूँ तो रावण अपने कुटुंब सहित आकर स्वयं बताएगा अथार्त मै उसको मार डालूँगा| महात्मा जटायु पहले तो यह सोचकर विस्मित हो गए कि क्या इस मांसभक्षी पक्षी गिद्ध, जिसका जन्म अधम योनी में हुआ है उसको श्रीरामजी वही लोक दे रहें हैं जो लोक  श्रीरामजी ने अपने  पिता श्री दशरथजी  को दिया हैं| तभी तो कह रहे हैं कि वहां जाकर मेरे पिता को सीताहरण के बारे में ना बताना| पुन: जब जटायु ने श्रीरामजी को यह कहते सुना कि रावण अपने कुटुंब सहित जाकर स्वयं श्री दशरथ जी को बताएगा तो जटायु श्रीरामजी के आगे नतमस्तक हो गया कि अपने परम शत्रु रावण को भी क्या श्रीरामजी वही लोक देंगे जो लोक श्रीरामजी ने अपने पिता श्री दशरथ जी को दिया है|

अथार्त श्रीरामजी से वियोग होने पर श्री दशरथ ने प्राण त्याग दिए और दशमुख रावण के प्राण श्रीरामजी से योग (मिलने पर) होने पर निकले परन्तु दोनों का परिणाम एक ही हुआ| श्रीरामजी को कोई भी जीव प्रेम अथवा वैर से याद करे, परिणाम सुखद होगा।

4.02.2014