वर्णाश्रम धर्म दो विचारधाराओ को मान्यता देता है।
वेदान्त और वेद। महाराज दशरथ वेद तथा महाराज जनक वेदान्त के प्रतीक है। वेद
परम्परा सकामता को महत्त्व देती है जिसमे देवताओं की स्तुति और यज्ञों का वर्णन
है। किस देवता की पूजा से क्या प्राप्त होता है और किस यज्ञ के करने से किस कामना
की पूर्ति होती है।
वेदांत का दर्शन निष्कामता और वैराग्य को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान करता है।
महाराज दशरथ को मूर्तिमान वेद तथा महाराज जनक को मूर्तिमान वेदान्त कहा गया है।
महाराज जनक ब्रह्माण्ड के सबसे बड़े ब्रह्मज्ञानी कहे गए हैं।और यह भेद इनके चरित्र
द्वारा भी प्रदर्शित होता है। अब सवाल यह उठता है की इश्वर सकाम का है या निष्काम
का। श्री रामचरित्रमानस में इसका उत्तर देते हुए बताया है की इश्वर सकाम और
निष्काम दोनों विचारधाराओ में से किसी एक को भी मानने वाले को भी प्राप्त होता है।
तभी इश्वर ने इन दोनों राजाओं की मन:स्थति जानकार स्वयं को दो भागो में विभाजित
करके एक भाग को पुत्री के रूप में जनकजी के यहाँ प्रगट किया और दुसरे भाग को पुत्र
के रूप में महाराज दशरथ के यहाँ प्रगट किया।
पिता पुत्र से कामना रखता है परन्तु पिता पुत्री को सदैव देता है किसी कामना की
इच्छा के बगैर। इसका अभिप्राय यह है की इश्वर सकाम के घर पुत्र के रूप में और
निष्काम के घर पुत्री के रूप में अवतरित होता है।
महाराज दशरथ को पुत्र के रूप में इश्वर को प्राप्त करने के लिए गुरु वशिष्ठ यग्य
करने की अनुमति प्रदान करते हैं। और महाराज जनक लोक कल्याण हेतु जब (वर्षा ना होने
पर गुरु आदेश देते हैं की जब राजा हल चलाये तो वर्षा होगी) हल चला रहे होते हैं तो
उन्हें माता सीता बिना प्रयास के प्राप्त होती है।जो की लक्ष्मी, शक्ति और भक्ति
हैं। इस प्रकार निष्कामता सकामता पर अपनी श्रेष्ठा साबित करती है। सकामता देह से
जुडी है और निष्कामता देह अभिमान से उपर उठ कर आती है। तभी श्री सीता को वैदेहि भी
कहते हैं जो देह से ही उत्पन्न नही हुई। अथवा जिनको देह अभिमान नहीं होता वहां
वैदेह राज होता है। महाराज जनक का राज्य। इनके राज्य में सब निवासी देह से उपर उठ
कर ब्रह्मज्ञानी हैं।
भक्तिस्वरूप माँ सीता और इश्वर राम की अभिन्नता विवाह मंडप में प्रदर्शित होती है।
जब श्री राम अभिमान रूपी धनुष को भंग करके माँ सीता को जीतते हैं। और फिर जीती हुई
सीता को श्री जनक द्वारा दान के रूप में ग्रहण करते हैं। जो केवल भगवान् राम
द्वारा ही संभव है कि जीती हुई सीता को दान में लेना।
16:11:2013
वर्णाश्रम धर्म दो विचारधाराओ को मान्यता देता है।
वेदान्त और वेद। महाराज दशरथ वेद तथा महाराज जनक वेदान्त के प्रतीक है। वेद
परम्परा सकामता को महत्त्व देती है जिसमे देवताओं की स्तुति और यज्ञों का वर्णन
है। किस देवता की पूजा से क्या प्राप्त होता है और किस यज्ञ के करने से किस कामना
की पूर्ति होती है।
वेदांत का दर्शन निष्कामता और वैराग्य को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान करता है।
महाराज दशरथ को मूर्तिमान वेद तथा महाराज जनक को मूर्तिमान वेदान्त कहा गया है। महाराज जनक ब्रह्माण्ड के सबसे बड़े ब्रह्मज्ञानी कहे गए हैं।और यह भेद इनके चरित्र द्वारा भी प्रदर्शित होता है। अब सवाल यह उठता है की इश्वर सकाम का है या निष्काम का। श्री रामचरित्रमानस में इसका उत्तर देते हुए बताया है की इश्वर सकाम और निष्काम दोनों विचारधाराओ में से किसी एक को भी मानने वाले को भी प्राप्त होता है। तभी इश्वर ने इन दोनों राजाओं की मन:स्थति जानकार स्वयं को दो भागो में विभाजित करके एक भाग को पुत्री के रूप में जनकजी के यहाँ प्रगट किया और दुसरे भाग को पुत्र के रूप में महाराज दशरथ के यहाँ प्रगट किया।
पिता पुत्र से कामना रखता है परन्तु पिता पुत्री को सदैव देता है किसी कामना की इच्छा के बगैर। इसका अभिप्राय यह है की इश्वर सकाम के घर पुत्र के रूप में और निष्काम के घर पुत्री के रूप में अवतरित होता है।
महाराज दशरथ को पुत्र के रूप में इश्वर को प्राप्त करने के लिए गुरु वशिष्ठ यग्य करने की अनुमति प्रदान करते हैं। और महाराज जनक लोक कल्याण हेतु जब (वर्षा ना होने पर गुरु आदेश देते हैं की जब राजा हल चलाये तो वर्षा होगी) हल चला रहे होते हैं तो उन्हें माता सीता बिना प्रयास के प्राप्त होती है।जो की लक्ष्मी, शक्ति और भक्ति हैं। इस प्रकार निष्कामता सकामता पर अपनी श्रेष्ठा साबित करती है। सकामता देह से जुडी है और निष्कामता देह अभिमान से उपर उठ कर आती है। तभी श्री सीता को वैदेहि भी कहते हैं जो देह से ही उत्पन्न नही हुई। अथवा जिनको देह अभिमान नहीं होता वहां वैदेह राज होता है। महाराज जनक का राज्य। इनके राज्य में सब निवासी देह से उपर उठ कर ब्रह्मज्ञानी हैं।
भक्तिस्वरूप माँ सीता और इश्वर राम की अभिन्नता विवाह मंडप में प्रदर्शित होती है। जब श्री राम अभिमान रूपी धनुष को भंग करके माँ सीता को जीतते हैं। और फिर जीती हुई सीता को श्री जनक द्वारा दान के रूप में ग्रहण करते हैं। जो केवल भगवान् राम द्वारा ही संभव है कि जीती हुई सीता को दान में लेना।
16:11:2013
वेदांत का दर्शन निष्कामता और वैराग्य को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान करता है।
महाराज दशरथ को मूर्तिमान वेद तथा महाराज जनक को मूर्तिमान वेदान्त कहा गया है। महाराज जनक ब्रह्माण्ड के सबसे बड़े ब्रह्मज्ञानी कहे गए हैं।और यह भेद इनके चरित्र द्वारा भी प्रदर्शित होता है। अब सवाल यह उठता है की इश्वर सकाम का है या निष्काम का। श्री रामचरित्रमानस में इसका उत्तर देते हुए बताया है की इश्वर सकाम और निष्काम दोनों विचारधाराओ में से किसी एक को भी मानने वाले को भी प्राप्त होता है। तभी इश्वर ने इन दोनों राजाओं की मन:स्थति जानकार स्वयं को दो भागो में विभाजित करके एक भाग को पुत्री के रूप में जनकजी के यहाँ प्रगट किया और दुसरे भाग को पुत्र के रूप में महाराज दशरथ के यहाँ प्रगट किया।
पिता पुत्र से कामना रखता है परन्तु पिता पुत्री को सदैव देता है किसी कामना की इच्छा के बगैर। इसका अभिप्राय यह है की इश्वर सकाम के घर पुत्र के रूप में और निष्काम के घर पुत्री के रूप में अवतरित होता है।
महाराज दशरथ को पुत्र के रूप में इश्वर को प्राप्त करने के लिए गुरु वशिष्ठ यग्य करने की अनुमति प्रदान करते हैं। और महाराज जनक लोक कल्याण हेतु जब (वर्षा ना होने पर गुरु आदेश देते हैं की जब राजा हल चलाये तो वर्षा होगी) हल चला रहे होते हैं तो उन्हें माता सीता बिना प्रयास के प्राप्त होती है।जो की लक्ष्मी, शक्ति और भक्ति हैं। इस प्रकार निष्कामता सकामता पर अपनी श्रेष्ठा साबित करती है। सकामता देह से जुडी है और निष्कामता देह अभिमान से उपर उठ कर आती है। तभी श्री सीता को वैदेहि भी कहते हैं जो देह से ही उत्पन्न नही हुई। अथवा जिनको देह अभिमान नहीं होता वहां वैदेह राज होता है। महाराज जनक का राज्य। इनके राज्य में सब निवासी देह से उपर उठ कर ब्रह्मज्ञानी हैं।
भक्तिस्वरूप माँ सीता और इश्वर राम की अभिन्नता विवाह मंडप में प्रदर्शित होती है। जब श्री राम अभिमान रूपी धनुष को भंग करके माँ सीता को जीतते हैं। और फिर जीती हुई सीता को श्री जनक द्वारा दान के रूप में ग्रहण करते हैं। जो केवल भगवान् राम द्वारा ही संभव है कि जीती हुई सीता को दान में लेना।
16:11:2013
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