Thursday 1 October 2015

जय रामजी की|

वर्णाश्रम धर्म मुख्यतः दो परम्पराओं को मान्यता देता है, वेद और वेदान्त | महाराज दशरथ वेद परम्परा को मानते हुए अपना राज्य चला रहे थे और महाराज जनक वेदांत परम्परा से अपने राज्य का शासन कर रहे थे| वेद परम्परा के अनुसार हमारे वेदों में जो लिखा है कि किस यज्ञ को करने से किया प्राप्ति होती है तथा किस कर्म से क्या फल मिलता है, भोगवादी होते हुए भी भोगो पर नियंत्रण रखते हुए जीवन यापन होता था, देह की इन्द्रियां नियंत्रण में रखते हुए अयोध्या के निवासी अपने अपने धर्म में लीन रहा करते थे तभी ईश्वर राम ने यज्ञ के फलस्वरूप अपने आप को अयोध्या में अवतरित किया| दशरथजी की विचारधारा, गुरु वशिष्ठ जो की विधि विधान को मानने वाले थे की जो वेदों में किसी भी कार्य को करने का विधान है उसी विधि के अनुसार चलकर ही धर्म कि व्याख्या करनी चाहिए, से प्रभावित थी| आसान शब्दों में सकामता की विचारधारा थी, अमुक कार्य के करने से अमुक फल की प्राप्ति हो जो इस देह से सम्बन्ध रखे| इसीलिए इसे देहनगर कहा जाता था| इस राज्य में कुछ गिनती के असंत को छोड़ दे तो बाकी सारे संत थे|

उसी समय एक दुसरे महाराजा श्रीजनक जी का भी राज्य था जहाँ का प्रत्येक निवासी वेदान्त की विचारधारा को मानने वाला था, अथार्त वेदों के विधि विधान से मुक्त, उनसे उपर उठे हुए, वो सब इस देह से उपर उठकर विचार करते थे, इस देह का उनकी नज़र में कोई मोल नहीं था, इसीलिए इसे विदेहनगर कहते थे| महाराज जनक इस ब्रहामांड के सबसे बड़े ब्रहमग्यानी कहलाये गए हैं| दूर दूर से ऋषि मुनि उनसे ब्रह्मज्ञान लेने आते थे| उनके लिए देह का उपयोग केवल ज्ञान अवम विचार के लिए था| रूप अवम राग से उपर उठे हुए थे, निष्कामता ही उनकी विचारधारा थी, किसी प्रकार के फल प्राप्ति की इच्छा से कोई भी कार्य नहीं किया जाता था| तभी ईश्वर ने अपने आप को दो भागो में विभाजित करके दुसरे भाग में सीता के रूप में, जनकजी के किसी प्रयास के बिना, अवतरित किया| इस राज्य में एक भी असंत नहीं था सारे ही संत थे|

एक तीसरी विचारधारा भी इन दोनो के समांतर  लंका में चल रही थी, वह थी देह्भोग की| लंका में रावण का राज्य था और वहां देह की इन्द्रियों के भोगो में ही निवासी लिप्त थे| वहां भोगो पर कोई नियंत्रण नहीं था| इसीलिए लंका को देह्भोगी नगर कहते थे| वहां एक दो को छोड़कर सभी असंत थे| यह अपने आप में बहुत सशक्त विचारधारा थी| और प्रान्तों के राजा जो महाराज दशरथ को भेंट दिया करते थे वो दशमुख को भी भेंट देते थे| लंका की व्यवस्था इतनी शक्तिशाली थी की श्री हनुमानजी के मच्छर रूप को भी लंकिनी ने पकड़ लिया था|
उस समय में दो महान ऋषि गुरु विश्वामित्र और गुरु वशिष्ठ भी  थे| जिनकी आपस की लड़ाई से शास्त्र भरे पड़े हैं| शास्त्र विद्या में गुरु वशिष्ठ और शस्त्र  विद्या में गुरु विश्वामित्र के समान कोई नहीं था परन्तु रावण के पास शास्त्र और शस्त्र दोनों का ही पूर्ण ज्ञान था वह समय आने पर शस्त्र और शास्त्र दोनों का उपयोग कर सकता था|

भगवान् परशुरामजी जो की भगवान् विष्णुजी के अवतार थे वह भी उसी समय थे| भगवान् परशुरामजी ने सहस्त्रार्जुन को पराजित कि था जिस सहस्त्रार्जुन ने रावण को पराजित किया था|
अब मन में एक प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि महाराज दशरथ, महाराज जनक, गुरु वशिष्ठ गुरु विश्वामित्र और भगवान् परशुरामजी के होते हुए भी श्रीराम को अवतार क्यों लेना पड़ा| क्या ये सब सक्षम नहीं थे रावण की विचारधारा को मिटाने के लिए|  अगर रावण को हराना या मारना ही एक मात्र उद्देश्य होता तो जो रावण बाली, सहस्त्रार्जुन और पाताल लोक के छोटे बालको द्वारा हराया जा चुका था उसे मारने के लिए श्रीराम को अवतार लेने की आवश्कता ही नहीं पड़ती|
इन सबका रावण को हराना केवल ऐसा ही है की बड़ी बुराई ने छोटी बुराई पर विजय प्राप्त की| क्यंकि इन सब की विचारधारा तो एक ही है| इनकी विचारधारा के रहते हुए रामराज्य स्थापित नहीं हो सकता था| श्री राम को केवल रावण का ही अंत ना करके उसकी विचारधारा का अंत करना था ताकि रामराज्य की स्थापना हो सके| वो केवल संभव था जब अच्छाई की बुराई पर विजय हो, ना की बुराई की बुराई पर विजय| तभी रावण और उसकी विचारधारा के अंत के पश्चात ही रामराज्य स्थापित हो सका, रामराज्य की स्थापना के लिए जो अयोध्या में असंत थे, केकई और मंथरा, उनके हृदय परिवर्तन की भी आवशकता थी|
अगले भाग में इस पर और चर्चा होगी|
जय श्रीराम |


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